________________
५०८]
वार ज्ञानोदय ग्रन्थमाला
___ "पिताजी! आपने जो भी निर्णय लिया है, मुझे स्वीकार है। मुझे यह दृढ़ विश्वास है कि शुभ कर्म के उदय से अनिष्ट वस्तु भी इष्ट हो जाती है और अशुभ कर्म के उदय से इष्ट भी अनिष्ट अशोभन हो जाते हैं . . . .।" (पृ.-२७)
मैना सुंदरी और श्रीपाल का विवाह हो जाता है। पतिव्रता नारी का कर्त्तव्य कितने सुंदर और स्पष्ट शब्दों में पू. माताजी ने पृ. २९ पर खींचा है, जिसे पढ़ प्रत्येक पतिव्रता नारी अपना जीवन आदर्श बना सकती है
"मैना सुंदरी अपने पति की सेवा में अहर्निश लगी रहती थी। घाव धोकर औषधि लगाती, पट्टी बांधती और प्रकृति के अनुकूल भोजन कराती थी। वह रंचमात्र भी ग्लानि नहीं करती थी। कभी-कभी अनेक तत्त्व चर्चा और धर्म कथाओं के द्वारा पति का मन अनुरंजित किया करती थी। कभी-कभी रात्रि में भी नींद न लेकर सेवा में संलग्न रहती थी।"
मैना सुंदरी एक दिन मुनिराज से कुष्ठरोग का निवारण कैसे हो, इसके लिए उपाय पूछती है, तब मुनिराज आष्टान्हिक पर्व में नंदीश्वर व्रत करके सिद्धचक्र पाठ करने को कहते हैं। तब मैना पूर्ण विधिपूर्वक व्रत पाठ कर जिनगंधोदक से पतिदेव का कुष्ठरोग ठीक कर देती है। साथ में ७०० वीर योद्धाओं का भी कुष्ठरोग ठीक हो जाता है। मैना सुंदरी के माता-पिता भी श्रीपाल को स्वस्थ जानकर प्रसन्न हो जाते हैं। लेकिन एक दिन श्रीपाल को चिंता होती है कि मुझे राजमाता के नाम से सभी जानते हैं, मेरे पिता का कोई नाम नहीं। तब वह अपने बाहुबल से अपना राज्य प्राप्त करने के लिए अन्यत्र जाना चाहता है, मैना सुंदरी भी साथ चलने का अनेक प्रकार से अनुरोध करती है, किन्तु श्रीपाल उसकी बात नहीं स्वीकारता। उस समय पतिव्रता मैना अपनी दृढ़ प्रतिज्ञा साथ में रख देती है। देखिए पृ. ४३ पर
"हे नाथ! यदि आप बारह वर्ष के पूरे होने पर अष्टमी को नहीं आए तो नवमी के दिन ही प्रातः मैं आर्यिका की दीक्षा ले लूंगी।"
श्रीपाल के जाने का निर्णय पक्का हो जाने पर मैना का मन नहीं मानता है कि पति को कहीं प्रवास में विघ्न नहीं आने पाए, इसलिए शिक्षास्पद वचन कहती है।
यद्यपि आप स्वयं प्रबुद्ध हैं, फिर भी मेरी यही प्रार्थना है कि प्रवास में आप कहीं पर क्यों न रहें। देव, शास्त्र, गुरु की भक्ति को अपने हृदय से दूर न करें और सतत सिद्धचक्र मंत्र का स्मरण करते रहें। .... चाटुकार लोगों पर विश्वास न करें और अपने कुल की मर्यादा के विरुद्ध कोई भी कार्य न करें। (प.-४४)।
और फिर श्रीपाल के प्रवास में १२ वर्ष व्यतीत हो जाते हैं। इस बीच वे आठ हजार रानियों के स्वामी हो जाते हैं। १२वें वर्ष का अंतिम दिन आ जाता है, तब रात्रि के अंतिम प्रहर में पतिव्रता मैना सुंदरी अपनी सास को अपनी प्रतिज्ञा याद दिलाती है।
"हे माताजी! आज बारह वर्ष बीत चुके हैं। आपके पुत्र आज तक नहीं आए हैं। उनसे मैंने कह दिया था कि यदि आप कही हुई अपनी निश्चित अवधि तक नहीं आयेंगे तो मैं आर्यिका दीक्षा ग्रहण कर लूंगी। इसलिए आप मुझे अब आज्ञा प्रदान करें, मैं प्रातःकाल ही दीक्षा लेउँगी। (पृ.-६९) ।
लेकिन श्रीपाल जो कि द्वार पर खड़े सब कुछ सुन रहे थे, प्रकट होकर सभी को आश्चर्य में डाल दिया। मैना सुंदरी और श्रीपाल का मिलन पाठक के हृदय को एक अपूर्व आनंद से भर देता है। सर्वत्र हर्ष की लहर दौड़ जाती है। अब श्रीपाल अपनी बाहुबल और अतुल सेना के बल पर अपने चाचा वीरदमन को भी जीतकर अपना खोया राज्य प्राप्त कर लेते हैं। कोटिभर श्रीपाल महामंडलेश्वर राजा के नाम से प्रसिद्ध हो जाते हैं।
एक दिन बादलों में सहसा बिजली चमकी और क्षण भर में लुप्त हो गयी, जिसे देख महाराज श्रीपाल को वैराग्य हो जाता है और वे राजपाट पुत्र को सौंप दीक्षा धारण कर लेते हैं। राजा श्रीपाल के साथ ७०० वीरों ने और माता कुंदप्रभा, मैना सुंदरी आदि आठ हजार (८०००) रानियों ने भी दैगम्बरी दीक्षा धारण कर ली।
आज हमें छोटे-छोटे संघों को देखकर आश्चर्य होने लगता है, पहले के बड़े-बड़े संघों को देखकर लोगों का मन कितना प्रफुल्लित हो उठता होगा। पू. माताजी ने पृ. ९१-९२ पर इस कथानक का सार कितने अल्प शब्दों में गागर में सागर की तरह भर दिया है
इस प्रकार मैना सुंदरी के बचपन में आर्यिका के पास विद्या अध्ययन करके धार्मिक संस्कारों को दृढ़ किया था। पुनः कर्म सिद्धांत पर अटल रहकर पिता के रोष को सहन किया। कुष्ठी पति को पाकर भी दुःखी न होकर अपने पातिव्रत्य गुण से नारी सृष्टि में मणि के समान सुशोभित हुई । पुनः सिद्धचक्र की आराधना के प्रभाव से पति के कुष्ठ को दूर करने से प्रत्येक आष्टान्हिक पर्व में प्रतिदिन जैन समाज की महिलाएं मैना सुंदरी के गुणों का गान करती रहती हैं।
श्री सिद्धचक्र का पाठ, करो दिन आठ, ठाठ से प्राणी ।
फल पायो मैना रानी ॥ इस प्रकार मैना सुंदरी ने पतिदेव के कुष्ठरोग को दूर करने के लिए सिद्धचक्र पाठ किया। पू. माताजी अपने प्रवचनों में अक्सर बताया करती हैं कि इस तरह के कार्यों के लिए भगवान से याचना करना दोष या मिथ्यात्व नहीं है, बल्कि भोग-उपभोग की सामग्री के लिए भगवान से याचना करना अवश्य दोषास्पद है।
पू. माताजी ने आज इतने ग्रंथ रच डाले कि उनके किसी शिष्य ने भी सभी ग्रंथों को पढ़ा नहीं, सभी को देखा नहीं। पू. माताजी का सम्पूर्ण जीवन धर्म-संस्कृति एवं आत्मसाधना के लिए समर्पित है। हम भी पूज्य माताजी के चरण की धूल बनकर अपना आत्मकल्याण करें, यही जिनेन्द्र देव से प्रार्थना है।
Jain Educationa international
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org