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गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ
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माताजी ने यह ठीक ही कहा है कि
"प्रत्येक प्राणी का यह कर्त्तव्य है कि जाति मद आदि को छोड़कर मुनि आर्यिका आदि की निंदा से दूर रहते हुए भी अपने में सम्यग्दर्शन को प्रकट करे। पुनः ज्ञान की आराधना करते हुए अणुव्रतों का पालन करे और शक्ति हो तो महाव्रती मुनि या आर्यिका बनकर अपने संसार की परम्परा को घटाने का प्रयत्न करे, यही मानव जीवन का सार है।"
इस भाग में अनेकान्त, तप सम्यक्दर्शन, जीव दया, ध्यान आदि अनेक जीवन-मूल्यों पर कथोपकथन शैली में विचार व्यक्त किये गये हैं। व्यक्तित्व के विकास में गुण-ग्राहकता जितनी उपयोगी है,दोषारोपण की प्रवृत्ति उतनी ही हानिकारक है। दोषारोपण करने वाला व्यक्ति ज्ञानी नहीं हो सकता और ज्ञान के अभाव में वह जिनमत का अनुयायी भी नहीं कहा जा सकता। (पृष्ठ ६४) दोषारोपण से बचने पर ही साधक का ध्यान स्वाध्याय की ओर हो सकता है। स्वाध्याय का सार जीवन में जीव दया के पालन के रूप में प्रस्तुत होती है। जीव दया से युक्त व्यक्ति ही रात्रि भोजन त्याग का पालन कर सकता है। त्याग की यह प्रवृत्ति धीरे-धीरे विकसित करनी चाहिए।
इस पुस्तक में जैन दर्शन के महत्त्वपूर्ण विषय ध्यान-साधना पर सूक्ष्म जानकारी दी गई है। एक ओर निर्मल ध्यान में जहाँ आत्मस्वरूप की जानकारी , संभव है, वहाँ सांसारिक जीवन के विभिन्न तनावों से मुक्ति भी मिल सकती है। इन दार्शनिक समस्याओं का समाधान प्रस्तुत करते हुए विदुषी आर्यिकाजी ने नारी व्यक्तित्व के विकास की भी अनेक बातें इन पुस्तकों में कही हैं। वे तपस्वी जीवन को व्यतीत करने वाली आर्यिकाओं को जितना महत्त्वपूर्ण मानती हैं, उतना ही गृहस्थ जीवन का निर्वाह करने वाली श्राविकाओं को भी। क्योंकि उनका मानना है, अच्छी श्राविका साधक जीवन और गृहस्थ जीवन दोनों के निर्वाह के लिए एक ठोस आधार प्रस्तुत करती है।
नारी आलोक में प्रस्तुत इन विभित्र कथाओं में माताजी ने शीलवती नारियों के महत्त्व को विभिन्न उदाहरणों से उजागर किया है। चरित्रयुक्त नारियाँ ही बच्चों को सुसंस्कारित कर सकती हैं। ऐसी श्राविकाओं को सदैव आर्यिकाओं से सम्पर्क रखना चाहिए। माताजी ने निष्कर्ष रूप में कहा है कि
___ “आज भी चन्दनबाला, अनन्तमती जैसी कन्याएं हैं। सीता, मैना, मनोरमा जैसी पतिभक्ता हैं, चेलना जैसी कर्तव्यपरायणा हैं और बाह्मी, सुंदरी के पदचिह्नों पर चलने वाली आर्यिकाएं हैं। हमारी बहनों को उनसे शिक्षा लेनी चाहिए। प्रतिवर्ष एक माह नहीं, तो कम से कम एक सप्ताह उनके सानिध्य में जाकर उनसे कुछ सीखना चाहिए।" (पृष्ठ-१०६) इस प्रकार पूज्या माताजी द्वारा लिखित ये नारी-आलोक कथापूर्ण शिक्षापुंज है।
पतिव्रता
समीक्षिका-श्रीमती त्रिशला जैन, लखनऊ
संत नारी का बलिदान कभी इस जग में व्यर्थ नहीं जाता।
उनके गौरव गरिमा से ही हर देश नया गौरव पाता ॥ ब्राह्मी, सुंदरी, चंदनबाला, अंजना, सीता, द्रौपदी और मैना संदरी आदि का इतिहास किसी से छिपा नहीं है। इन सतियों ने धर्म और आत्मबल के सहारे अपने सतीत्व की रक्षा की है। प्रस्तुत पुस्तक "पतिव्रता" में पूज्य माताजी ने सती मैनासुंदरी का जीवन चित्रण बड़े ही रोमांचक ढंग से प्रस्तुत किया है।
मैनासुंदरी ने जैनगुरु (आर्यिका) के पास रहकर अध्ययन किया, जिससे उसे कर्मसिद्धान्त पर अटल विश्य हो गया। जब उसके पिता ने उसे इच्छानुसार वर चुनने को कहा, तब उसने कहा, "पिताजी आप चाहे जिसके साथ विवाह कर दें, मेरे भाग्य में जो लिखा होगा, वही होगा।" पिता ने क्रोध में कहा कि यह सभी उत्तमोत्तम सुख सामग्री क्या तुझे तेरे कर्म से मिली है। तब मैना ने साहस कर क्या कहा । देखिए पृ.-२१ पर कर्मसिद्धांत की प्रमुखता
"पिताजी! आप नाराज न होइए। मैं जो आपके घर में जन्मी हैं, तो यह सब मेरे पूर्व के पुण्य का ही
फल है। अन्यथा मैं किसी गरीब या भिखारी के यहाँ जन्म ले लेती। मेरी गुर्वानी आर्यिकाजी ने मुझे कर्म-सिद्धान्त को अच्छी तरह से पढ़ा दिया है। आप क्या और मैं क्या? इस संसार में तीर्थकर भी कर्म के ही आधीन रहते हैं, तभी तो भगवान् ऋषभदेव को छह महीने तक आहार नहीं मिला था ....।"
जब राजा ने कुष्ठ रोगी श्रीपाल के साथ मैनासुंदरी का विवाह निश्चित कर दिया और मैना सुंदरी से कहा तू मेरा कहना मान ले, अन्यथा मैं तेरे भाग्य की कड़ी परीक्षा लेउँगा। तब भी मैना ने धैर्य नहीं छोड़ा और दृढ़तापूर्वक उत्तर दिया।
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