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वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला
भव्य आत्माओं को कल्याण के मार्ग पर लगायेंगी।
प्रतापगढ़ के बाद यदा-कदा उनके दर्शनों का सुयोग मुझे मिला, हर बार कुछ चर्चा के बाद स्वाध्याय की प्रेरणा और प्रसाद रूप में कुछ पठनीय पुस्तकें उनसे प्राप्त हो जाती थीं । परंतु दिल्ली में उनके दर्शन करने के बाद एक लम्बा अंतराल पड़ गया। उनकी प्रेरणा से सन् १९७४ में हस्तिनापुर में जम्बूद्वीप का निर्माण प्रारंभ हुआ और १९७९ में पहली प्रतिष्ठा भी हो गई। अप्रैल-मई १९८५ में जम्बूद्वीप की बहु प्रचारित पंच कल्याणक प्रतिष्ठा भी सम्पन्न हुई और मार्च १९८७ में पुनः एक पंच कल्याणक प्रतिष्ठा एवं ब्र० मोतीचंदजी की क्षुल्लक दीक्षा आचार्य विमलसागरजी के सानिध्य में जम्बूद्वीप में सम्पन्न हुई। प्रत्येक शुभ अवसर पर वहां से आमंत्रण भी प्राप्त होते रहे, परंतु मुझे वहां जाने का सुयोग नहीं मिल पाया, इसकी तड़फन भी मन में बनी रही।
इस बीच हमें सतना में जम्बूद्वीप ज्ञानज्योति का स्वागत करने और साथ ही ब्र० मोतीचंदजी आदि का अभिनंदन करने का अवसर मिला। विभिन्न स्थानों पर आयोजित अनुष्ठानों में भी ब्र० मोतीचंदजी, ब्र० रवीन्द्रजी एवं बहिन माधुरीजी से मिलना होता रहा। इनसे तथा त्रिलोक शोध संस्थान से नए नए प्रकाशित होने वाले पूजन विधान एवं अन्य ग्रंथों के माध्यम से पूज्य माताजी की साधना का परिचय भी मिलता रहा, परंतु उनके पुनः दर्शन करने और पहलीवार जम्बूद्वीप की अद्वितीय रचना को देखने, वहां के जिनालयों की वंदना करने का अवसर तो मिल पाया अकूटबर १९८७ में। उस समय पूज्य माताजी शरीर से कुछ अस्वस्थ थीं, परंतु अपनी साधना में, ज्ञान की आराधना में और जम्बूद्वीप के विकास की प्रेरणा देने में उन्हें अत्यंत दृढ़ और सावधान पाया उस समय अ० मोतीचंदजी के क्षुल्लक मोतीसागरजी के रूप में पहली बार दर्शन भी मिले।
जम्बूद्वीप की रचना देखकर तो मन प्रसन्न हो गया, अभी तक ऐसी रचना कागज पर नक्शों में ही देखी थी। वहां पहुंचकर थोड़ी देर को तो ऐसा लगा कि हम सचमुच में अकृत्रिम चैत्यालयों के दर्शन कर रहे हैं और सुमेरु पर्वत पर चढ़ रहे हैं। पूज्य माताजी की प्रेरणा से बनी यह अद्वितीय रचना अनेक पीढ़ियों को उनके नाम, साधना और पुरुषार्थं से परिचित कराती रहेगी जैन भूगोल का ज्ञान भी इस रचना से होता रहेगा।
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इस प्रवास में भी माताजी ने चर्चा के लिए खूब समय दिया और चलते समय जब क्षुल्लक महाराज के इशारे पर प्रबंधक महोदय कुछ पुस्तकें भेंट करने लाये तो माताजी ने कहा कि अब इन्हें ये पुस्तकें नहीं अंथराज नियमसार की टीका भेंट कीजिये स्वाध्याय में आगे बढ़ने की प्रेरणास्वरूप ग्रंथराज की भेंट हमने स्वीकार की और विचार करते हुए वहां से लौटे कि साल दो साल में इस पुण्यस्थली पर आते रहेंगे।
चार वर्ष का अंतराल पुनः पड़ा, वर्ष १९९९ के अंतिम चरण में जब मुझे "अहिंसा इंटरनेशनल" दिल्ली से शाकाहार पर होने वाली राष्ट्रीय सेमीनार में सम्मिलित होने और पुरष्कार ग्रहण करने का आमंत्रण मिला तो हम दिल्ली जाने से पूर्व तीस नवम्बर को एक दिन के लिए जम्बूद्वीप पहुंच गये। पूज्य माताजी के दर्शन हुए, उन्होंने हमारी भावनाओं को जानकर विवादों से परे केवल धार्मिक एवं शाकाहार प्रचार-प्रसार के विषय में ही हमसे चर्चा की इस बार हमें बहिन माधुरीजी के दर्शन पूज्य आर्यिका चन्दनामती माताजी के रूप में मिले अत्यंत भव्य एवं कलात्मक कमल मन्दिर के दर्शन करके भी मन प्रसन्न हुआ। जम्बूद्वीप का स्वरूप दिन पर दिन निखर रहा है। व्यवस्थायें और अच्छी हो रही है। प्रकाशन भी खूब हो रहे हैं।
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इस बार चलते समय हमें भेंट में मिली पूज्य माताजी की नवीनतम कृति "मेरी स्मृतियां", जो केवल उनकी स्मृतियां ही नहीं, परम पूज्य आचार्य शान्तिसागरजी महाराज द्वारा पुनः स्थापित मुनि परम्परा का घटनाओं से भरा एक ऐतिहासिक दस्तावेज है।
कामना है कि पूज्य आर्यिका शनमती माताजी की जितनी भी आयु शेष हो वह स्वस्थ शरीर के साथ ज्ञान और संयम की आराधना करते बीते। वे मां जिनवाणी की सेवा करती रहें और हम सबको कल्याण का मार्ग बताती रहें।
उनके चरणों में शत शत नमन् ।
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अद्भुत तपस्विनी के सानिध्य का एक लघु संस्मरण
वैद्य धर्मचन्द जैन,
शास्त्री आयुर्वेदाचार्य, इन्दौर (म०प्र० ]
चिकित्सक के नाते मुझे १०५ आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी तथा उनकी गृहस्थावस्था की माँ स्व० १०५ आर्यिका रत्नमती माताजी की चिकित्सात्मक वैयावृत्ति का ३-४ बार अवसर मिला। आर्यिका ज्ञानमतीजी प्रारंभ से ही संग्रहणीग्रस्त रही हैं। जबकि इनकी माताजी उस सय संभवतः पीलियाग्रस्त थीं। अत्यंत दुर्बलता, चक्कर आना, भूख न लगना, रक्त की कमी होना जैसे लक्षण तीव्र रूप में थे। स्थिति नाजुक थी ।
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