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________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [८५ कुछ भी लिखने के पूर्व यहाँ यह उल्लेख कर देना सामयिक है कि दिगंबर जैन व्रती साधु-साध्वियों की चिकित्सा करना चिकित्सक के लिए स्वयं रोग बन जाता है; क्योंकि चिकित्सा संहिता, चिकित्सा सूत्र के विपरीत चिकित्सक जैन व्रतियों के अनिवार्यचर्या, व्रत विधान से जकड़ दिया जाता है। वह चिकित्सा विधान का स्वतंत्र अनुसरण पालन नहीं कर पाता। ऐसे लोगों के आहारकाल में ही जो कुछ दवा जिस रूप में देनी हो, दी जाती है। निश्चित ही यह स्थिति चिकित्सा विधान के अनुकूल नहीं। रोग का आक्रमण तो अन्धे व्यक्ति द्वारा प्रयुक्त लाठी प्रहार के समान है, जो उसके सामने आयेगा आहत (दुःखी) होगा। धनवान्, गरीब, स्त्री, पुरुष, व्रती, अव्रती का कोई विकल्प उसके सामने नहीं होता । रोग का निराकरण भी चिकित्सा सिद्धान्त के अनुसार विविध प्रकार रस, भस्म, चूर्ण आदि की औषधियों का प्रयोग द्रव्य, क्षेत्र, काल, मात्रा, अनुपात, संख्या को मद्देनजर रखकर किया जाता है। इसके साथ पथ्य का सेवन और अपथ्य का परिहार भी अनिवार्य होता है, किन्तु त्यागी, व्रती रोगियों के लिए इन नियमों का पालन करना संभव नहीं, अतः चिकित्सक बड़ी दुःस्थिति एवं असमंजस में पड़ जाता है। असहाय हो जाता है। अस्तु। एक दिन स्व० आर्यिका रत्नमती माताजी अधिक सीरियस (गंभीर) हो गईं। यम सल्लेखना लेने की इच्छा माताजी के समक्ष प्रकट की। माताजी ने मुझे बुलाया व राय माँगी। स्व० माताजी की नाड़ी देखकर मैंने कहा नाड़ी की गति ठीक है, अभी निकट भविष्य में कोई खतरा नहीं। फिर माताजी आहार करने के पश्चात् नियम सल्लेखना तो लेनी ही है। चतुर्विध आहार का त्याग स्वयं रहता है इतना पर्याप्त है। यम सल्लेखना ग्रहण करने के पश्चात् समय लम्बा खिंचा तो आकुलता, वेदना अधिक होगी, परिणाम स्थिर न रह सकेंगे। यह परामर्श माताजी को पसंद आया तथा नियम सल्लेखना में उपचार भी चालू रहा। इसके बाद स्व० आर्यिका माताजी कुछ दिनों तक शान्तिपूर्वक अपनी आत्म-साधना में रत रहीं और अन्त में सल्लेखनापूर्वक शरीर त्याग कर स्वर्गवासी बनीं। बात १९८५ की है, आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी अस्वस्थ हो गईं। संग्रहणी ने अपने पूरे परिवार के साथ आक्रमण किया। आहार लेते ही अत्यन्त कष्टदायक वमन हो जाता था। असह्य उदरशूल, घबराहट, बेहोशी जैसी स्थिति बन जाती थी। उपचार कार्य असर नहीं कर रहा था। मेरे अलावा मेरठ, देहली के यशस्वी, ख्याति-प्राप्त चिकित्सक भी आये। चिकित्सा सूत्र व विधान के अनुरूप विविध प्रकार की औषधि कल्पना की जाती, किन्तु समस्या आहार के साथ ही सब कुछ लेने, बार-बार औषधि प्रयोग न किये जाने की थी। वे चिकित्सिक आश्चर्यचकित, कुछ अप्रसन्न व निराश जैसे हुए। जैनेश्वरी दीक्षा, उसकी कठोरता व दुर्निवारता को देख-सुनकर वे दंग रह गये। जैन साधु-साध्वियों के प्रति अपनी श्रद्धा प्रकट की। ख्यातनामा एलोपैथिक चिकित्सक बुलाये गये। अपनी पद्धति के अनुसार मल-मूत्र आदि का परीक्षण कर पू० माताजी को ग्लूकोज व अन्य इंजक्शन आदि का प्रयोग अत्यावश्यक बताया, किंतु जानकार श्रद्धालु श्रावकों, वैयावृत्ति करने वालों ने इस उपचार की ग्राह्यता व संभावना से स्पष्ट इंकार किया। माताजी ने भी स्पष्ट कहा आत्मसाधना के लिए शरीर है। शरीर के लिए आत्मसाधना, तपश्चर्या, संयम का बलिदान नहीं दिया जा सकता। डॉक्टरों ने अपनी वैज्ञानिक भौतिक धारणा के अनुसार इसे दुराग्रह, आत्मघात तक की संज्ञा दी, किन्तु माताजी का मन सुमेरु रंचमात्र भी चलायमान नहीं हुआ। इस परीषह को उन्होंने बड़ी शान्ति व धीरज से सहा। असातोदयक्षीण हुआ। माताजी स्वस्थ हुईं और अभी निरन्तर स्व-पर कल्याण के मार्ग पर आरूढ़ हैं। उस रात की दिल दहला देने वाली घोर असहनीय वेदना और माताजी का शान्त परिणाम, कष्ट सहिष्णुता, धैर्य का जब स्मरण आता है तो जैनी तपश्चर्या और उसके आराधक महाव्रतियों के समक्ष किसी का भी मस्तक श्रद्धा से झुके बिना नहीं रह सकता। पूज्य माताजी के चरणों में शत-शत नमन करता हुआ मैं उनके दीर्घ जीवन की मंगलकामना करता हूँ। पूज्य गणिनी आर्यिकारत्न ज्ञानमतीजी : ज्ञान की आगार - राजीव प्रचंडिया एडवोकेट, अलीगढ़ संपादक : जय कल्याण श्री [मासिक] प०पू० गणिनी आर्यिकारत्न ज्ञानमती माताजी ने आत्म-पथ को अंगीकार कर जग को यह अहसास कराया कि साधना पथ पर “पर्याय" बाधक नहीं होता, अपितु बाधक होता है "मोह का संसार"। यथार्थतः जीवन की सही सार्थकता इस संसार पर पूर्ण विजय प्राप्त करने पर ही सिद्ध होती है। जीवन की सार्थकता के प्रति पू० माताजी आरम्भ से ही उत्सुक रही हैं, अतः जो शाश्वत है, चिरन्तन है, उसकी खोज उन्हें श्रेयस्कर ही नहीं प्रेयस्कर भी लगने लगी। संसार के प्रति विरक्ति के स्वर सहज ही अनुभूत हो उठे। जिसका एक ठोस प्रमाण है, सन् १९५३ से सन् १९५६ तक की अल्प यात्रा में ही पूज्य माताजी का बाल ब्रह्मचारिणी से आर्यिका पद पर प्रतिष्ठित होना। यदि अन्तरंग के भाव वैराग्य की ओर वर्द्धित होने लगें या यूँ कहें अन्तरंग में प्रतिष्ठित देवता के यदि एक बार अभिदर्शन हो जायें तो निश्चय ही समझिये किसी भी प्रकार की मिथ्या रुकावटें अपनी Jain Educationa international For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012075
Book TitleAryikaratna Gyanmati Abhivandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Jain
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1992
Total Pages822
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size26 MB
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