SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 103
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [७७ बैठेंगे। और एक ब्रह्मचारिणी बहन को संकेत किया कि वह मेरी व्यवस्था करवा दे। वह बहन मुझे आहार के लिए एक चौके में ले गई। अपने आहार से निपट अब मैं माताजी के पास पहुँची कि मध्याह्न सामायिक से पूर्व ही उनसे कुछ चर्चा कर लूँ, किंतु माताजी का "मौन" था-उनसे पुनः प्रश्न उठाया तो वे प्रथम तो मौन रहीं फिर कुछ देर बाद उन्होंने संकेत से पूछा- यहाँ कब तक हो ? मैंने बतलाया- कि माताजी आज ही दिल्ली वापिस लौट जाऊँगी तो उन्होंने संकेत किया कि २-३ दिन ठहरो, चर्चा होगी। मैं रुकना तो चाहती थी, किंतु इतनी छुट्टी लेकर नहीं गई थी। हाथ जोड़कर मैंने विनती की कि संभव नहीं हो सकेगा और इस तरह मुझे उनके मात्र दर्शन मिले, चर्चा नहीं हो पाई। मेरी कर्मफल वंचना! किंतु उनके धर्म वात्सल्य से मैं प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकी। वर्तमान काल की प्रथम बाल ब्रह्मचारिणी आर्यिका के रूप में माता ज्ञानमतीजी ने कुमारिकाओं के लिए नये क्षितिज का आयाम खोजा है। उन्होंने दो पग वास्तव में मेरी दृष्टि में प्रशंसनीय उठाये हैं प्रथम पग है- उनका नारियों द्वारा "जिनमूर्ति के अभिषेक को समर्थन", सामान्य मानव की भला क्या बिसात कि वह इस मर्त्यमलिन शरीर से सिद्ध प्रभु को छू सके अथवा तीर्थंकरों को प्रक्षालित कर सके। अभिषेक कर सके, फिर भी प्रतिदिन पुरुष अपने भावों को निर्मल बनाकर, स्नान के बाद, आह्वान द्वारा मूर्ति में प्रतिष्ठा प्रभु की करके उनका प्रक्षाल और अभिषेक कर सकता है। फिर ना जाने किस मिथ्या भ्रमवश उसने नारी द्वारा "तेरहपंथी दिगम्बर समाज में" अभिषेक का निषेध कर दिया। नारी स्वरूप “काया" जो तीर्थंकर को नौ मास गर्भ में रखकर जन्म तो दे सकती थी, “पवित्र जननी" कहला सकती थी, किंतु तीर्थंकर का अभिषेक नहीं कर सकती है। स्पष्ट जानकर भी कि "नवमल द्वार सवै निस वासर, नाम लिए घिन आवे", पुरुष तो स्नान करके शुद्ध हो सकता है, किंतु नारी नहीं! नारी स्वयं भली-भाँति जानती है कि वह कब शुद्ध है और यदि शुद्धि देखकर वह भक्ति से सराबोर होकर अभिषेक हेतु आगे आती है तो पंडितों द्वारा निषेध, मात्र पुरुष का "मिथ्या व्यवहार" और "दंभ" कहलायेगा। पूज्य माताजी ने अभिषेक विधि का समर्थन करके इस रूढ़िवादी परम्परा को तोड़ने का एवं आगम परम्परा को जीवंत करने का जो साहसिक कार्य किया है वह प्रशंसनीय है। यह महावीर के दर्शाये पथ को कि जन्म और लिंग नहीं, कर्म और ध्येय से ही व्यक्ति अपने जन्म को सार्थक करता है तथा चतुर्विध संघ में आर्यिका, मुनि के ही लगभग समकक्ष प्रतिष्ठित है, (भले वीतरागत्व की भावना में अचेलकत्व न होने के कारण मोक्षमार्गी होते हुए भी मोक्षगामिनी नहीं) उपदेशों द्वारा नारी के उत्साह को खंडित होने से बचाया है। उनका दूसरा पग है-हस्तिनापुर में "जम्बूद्वीप-मिनी मॉडल" की रचना । ब्रह्मांड के विस्तार में त्रिलोक की कल्पना, विज्ञान अथवा वैज्ञानिकों की दृष्टि में डाल सकना एक दुष्कर कार्य है। भला स्वर्ग और नरक इस मृत्युलोक से हम मर्त्यजीवों को दिखें भी तो कैसे? और अदृष्ट पर हमारा सामान्य बालक विश्वास कैसे लायेगा? जैन धर्म वैज्ञानिक धर्म है, जिसमें दृष्ट और अदृष्ट दोनों को मनुष्य के सम्मुख प्रस्तुत कर सकने की सामर्थ्य है। छः द्रव्यों वाला पर्याय बदलता संसार, ७ तत्त्वों वाली व्यवस्था, जिसमें दृष्ट अजीव और अदृष्ट जीव, मोक्ष, बंध, आश्रव, संवर और निर्जरा की विस्तृत भूमिका है और ९ पदार्थमय इस चराचर स्थिति को मनुष्य कैसे अवलोकन करे ? जैन धर्म में इस समूचे ब्रह्मांड को १४ राजू वाला आयाम माना है, जिसमें तीनलोक हैं, उस त्रिलोकी सत्ता के मध्य और ऊर्ध्व लोक की व्यवस्था दर्शाता संपूर्ण मिनी मॉडल ही हस्तिनापुर में प्रस्तुत किया गया है। आर्यिका पूज्य माताजी ने "सदेही" मनुष्य को द्रष्टा बनाकर हमारे आस-पास फैले इस विशाल विस्तार को, जो प्रति समय हमारे साथ है (जन्म, मृत्यु, विचार, भाव, कर्म) दृष्ट, अदृष्ट को जोड़ते हुए सिद्धलोक तक हमारी कल्पना को पहुँचाने का एक सरलतम और उत्कृष्ट नमूना प्रस्तुत किया है। लेखनी की धनी इन आर्यिका माताजी ने प्रायोगिक रूप से दर्शकों को सिद्धलोक तक पहुँचने की एक रोमांचकारी अनुभूति अपने इस श्वेत संगमरमरी मॉडल द्वारा दिलाने का सुंदर प्रयास किया है। थ्री डायमेंशनल कल्पना की साकार प्रस्तुति समूचे विश्व में मात्र यहीं उपलब्ध है। चित्रों में यह भले ही अनेक बार देखी गई हो, प्लेनेटोरियम जैसी भूमिका समझाते हुए कदाचित् यहाँ कोई दर्शकों को जैन भूगोल बतलावे तो कठिन ना होगा, इस रहस्यमय जम्बूद्वीप रचना को समझ सकना । भूतत्त्ववेत्ताओं एवं पुरातत्त्ववेत्ताओं का भी मत है कि कभी संपूर्ण धरती इकट्ठा थी, जिसे थाली की कल्पना माना गया- उस धरती के चारों ओर जल था। कालांतर में उसी धरती को बाँटने वाली नदियों के कटाव पसरे और चक्र लगाती धरती (स्वयमेव धुरी पर घूमती) छितरकर छह महाद्वीपों में बँट गई। वे द्वीप भी धीरे-धीरे दूर हटते गए और उनके बीच समुद्र हिलोरें लेने लगा। उस थालीनुमा धरती पर मेरु पर्वत था और जामुन के वृक्ष; अतः वह जम्बूद्वीप कहलाया। भारत के सभी प्राच्य धर्मों में उस जम्बूद्वीप के अस्तित्व का वृत्तान्त मिलता है, जिसके अंदर एक आर्यखंड था, जिस आर्यखंड में एक भरत क्षेत्र था और उस भरत क्षेत्र के किसी एक राज्य में स्थित किसी एक कुल से ..... पिता .... माता ..... की संतान के रूप में हमारे नायक, नायिकाओं का ब्यौरा हमें सुनने को मिलता है। अत्यंत रोचक कथाओं के रूप में दृष्ट संसार प्रस्तुत होता है- जिसे अदृष्ट से जोड़ते हुए भव भव की कथाओं के बाद अचानक वह जीव मोक्षगामी होकर सिद्धत्व को प्राप्त होता है। सांसारिक भूलभुलैया में जब-जब जीव “स्वार्थवश" आगे बढ़ता है वह हिंसा की ओर मुड़कर अपना संसार बढ़ाता है, जब-जब परमार्थ की ओर बढ़ता है Jain Educationa international For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012075
Book TitleAryikaratna Gyanmati Abhivandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Jain
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1992
Total Pages822
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy