SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 102
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ७६] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला परम विदुषी ज्ञानमती माताजी, जिन्हें बचपन से सुमधुर वाणी, विनयशीलता, प्राणी के प्रति वात्सल्यता, धर्म संस्कार प्राप्त हुए, एक अनूठी प्रतिभा की धनी हैं। इस प्रचुर प्रतिभा का साक्षात्कार हमें उनकी कृतियों में उपलब्ध होता है। अष्टसहस्री जैसे क्लिष्ट ग्रन्थ का अनुवाद कर दर्शन के अध्येताओं का आपने महान् उपकार किया है। आपके द्वारा प्रवाहित इस न्याय की ज्ञान गंगा में कोई भी गोते लगा सकता है। इस तरह की महान् आत्मा परम पूज्य ज्ञानमतीजी की अद्वितीय प्रतिभा का ही यह चमत्कार है कि जम्बूद्वीप शास्त्रों से अवतरित होकर पृथ्वी पर मूर्तरूप ले सका है। यथा नाम तथा गुण को चरितार्थ करने वाली ज्ञानमती माताजी के दिव्य-गुणों के सौरभ का अनुभव तब हुआ जब १९८३ में हस्तिनापुर में "जम्बूद्वीप" पर संगोष्ठी आयोजित की गई थी। शील, क्षमा, स्नेह, सद्भावना, ज्ञान की निर्मल ज्योतिस्वरूप माताजी में पवित्र-अलौकिक आकर्षण है, जिसके परिणामस्वरूप सभी नतमस्तक हो जाते हैं। लगभग अर्द्धशताब्दी से ज्ञान, दर्शन, चरित्र और तप में अपने को समर्पित करती हुई जैन धर्म की ज्योति को जगमगाने वाली एवं समाज को ज्ञान-साधना से आलोकित करने वाली इस महान् विभूति "ज्ञानमयो" सिद्धान्त वाचस्पति, न्यायप्रभाकर, गणिनी आर्यिकारत्न परम पूज्य ज्ञानमती माताजी का शत-शत वन्दन, अभिवन्दन करते हुए मैं अपनी विनयांजलि समर्पित करता हूँ। विनयांजलि - डॉ० विमलचंद टोंग्या, इन्दौर अत्यन्त ही हर्ष की बात है कि परमपूज्य गणिनी आर्यिकारत्न ज्ञानमती माताजी के सम्मान में श्रद्धा भाव प्रकट करने हेतु एक वृहद् अभिवदन ग्रन्थ का प्रकाशन किया जा रहा है। यह सचमुच अकादमिक गतिविधियोंको प्रोत्साहित करने वाली पूजनीय माताजी के प्रति विनयांजलि होगी। पूजनीय माताजी के प्रति असीम श्रद्धा सहित नतमस्तक होकर आपके प्रयासों की सफलता की कामना करता हूँ। जम्बूद्वीप रचना : गणिनी आर्यिकारत्न श्रीज्ञानमती जी की ज्ञानमयी प्रस्तुति -डॉ० स्नेह रानी जैन सी-५८, विश्राम, जैननगर, सागर गतवर्ष सिवनी, मध्यप्रदेश के पंचकल्याणक महोत्सव के समय किन्हीं पंडितों के द्वारा सुनने में आया कि भारत की दिगम्बर जैन समाज की एक मात्र आर्यिका माता ज्ञानमतीजी- देव का प्रक्षाल पूजन स्त्रियों द्वारा किया जाना दोषरहित मानती हैं। सुनकर अत्यंत हर्ष हुआ। वह पंडितजी अतिविनय भाव से आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज के पास उपर्युक्त तथ्य को लगभग शिकायत रूप में प्रस्तुत कर रहे थे और चाहते थे कि आचार्यश्री उसके बारे में विरोध स्तर उठावें। हैरानी से मैं हाथ जोड़े सभी की तरह आचार्यश्री के उत्तर की प्रतीक्षा कर रही थी कि आचार्यश्री ने मुस्कराकर कहा-"आजकल बराबरी का युग है ....।" और बात जयघोषों में समाप्त हो गई। बस, तभी से तीव्र इच्छा उठी, पू० माताश्री ज्ञानमतीजी के दर्शन करने की और उनसे चर्चा करने की। सुन रखा था कि माताजी का दृष्टिकोण वैज्ञानिकी है। थोड़ा-बहुत उनका साहित्य खोजा-पढ़ा और दिल्ली होते हुए हस्तिनापुर पहुंच गई। चाह तो रही थी कि माताजी के दर्शन उनके आहार से पूर्व हो जायें और उनके आहार टान में भाग ले सकूँ, किंतु बस के पहुँचते-पहुँचते उनके आहार प्रारंभ हो चुके थे। पूछते-पूछते वहाँ पहुँची जहाँ उनके आहार चल रहे थे। खिड़की से झाँककर उन्हें वंदना की। उनकी दृष्टि मुझ पर पड़ी-- मौन प्रश्रात्मक-दृष्टि । आहार समाप्ति पर जब उनके बाहर निकलने पर मैंने उनकी वंदना पास पहुँचकर की तो पुनः वही मौन प्रश्न था, परिचय हेतु। मैंने अपना परिचय दिया कि दिल्ली इंतेहान लेने आई थी - आपक दर्शनों की तीव्र इच्छा थी; अतः आ गई हूँ। जम्बूद्वीप संबंधी मेरे मन में प्रश्न हैं कि आज के एक वैज्ञानिक छात्र को इसका परिचय किस प्रकार टैस ? "जिसे धर्म की कोई जानकारी न हो।" - तो सर्वप्रथम उन्होंने इशारे से मुझसे भोजन के बारे में पूछा मैंने बतलाया कि मेरा मर्यादा वाला भोजन मेरे साथ है- तो पुनः संकेत किया उन्होंने कि उसे रहने दो, चौके में जाकर ताजा भोजन ले लो, फिर Jain Educationa international For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012075
Book TitleAryikaratna Gyanmati Abhivandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Jain
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1992
Total Pages822
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy