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________________ ४५०] - वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला सुन्दर विवेचन भक्तिरस में हुआ, किन्तु भावपक्ष इतना प्रवल रहा कि आध्यात्मिक प्रवाह भी खूब प्रवाहित हुआ है। काव्य के दोनों पक्ष भाव एवं कला से सुन्दर समन्वित इन्द्रध्वज विधान' माताजी की अमरकृति के रूप में सदैव अमर रहेगा और चिरकाल तक जिन धर्म की प्रभावना होती रहेगी। जैन दर्शन के चिन्तन-मनन एवं शोध प्रबन्ध की दिशा में यह कृति उपयोगी सिद्ध हुई है। इस बहुमूल्य रचना के लिए परम पूज्य गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी के चरणारविन्द में वंदन-अभिनंदन । "त्रैलोक्य विधान, सर्वतोभद्रविधान एवं तीन लोक विधान" लोक्य विधान तीन लोक विधान सर्वतोभद्र | विधान समीक्षक-डॉ० दयाचन्द्र जैन साहित्याचार्य, सागर विधानग्रन्थत्रयी का समीक्षात्मक अनुशीलन विश्व में भारतवर्ष एक धर्मप्रधान राष्ट्र है इसमें अनेक धर्मों, सम्प्रदायों और विचारों का संगम है। इस राष्ट्र में निवास करने वाले मानवों ने सदैव धार्मिक एवं नैतिक परम्परा का निर्वाह किया है। उस धर्मसंगम में धर्मतीर्थ (जैनधर्म) एक महत्त्वपूर्ण स्थान का अधिकारी है, कारण कि इस विश्वधर्म का उद्भव तीर्थंकर जैसी २४ महान् पुण्यात्माओं से हुआ है। तीर्थंकरों ने यथार्थतः दोषरहित पवित्र आत्मा को धर्म कहा है परन्तु जब मानवीय आत्मा में मिथ्यात्व, अभिमान, क्रोध, माया, हिंसा, लोभ, असत्य आदि दोष कर्म के कारण प्रविष्ट हो जाते हैं, तब मानव, मन से दूषित विचार करता है, असत्यवचनों का प्रयोग करता है एवं शरीर से हिंसात्मक कार्य करता है। संस्कृतज्ञ नीतिकारों का नैतिकवचन भी इस विषय में प्रसिद्ध है मानसं उन्नतं यस्य, तस्य सर्वं समुन्नतम्। मानसं नोन्नतं यस्य, तस्य सर्वमनुनतम् ॥ तात्पर्य- जिस मानव का मानस निर्दोष-पवित्र है उसके वचन परम हितकर होते हैं और वह शरीर से स्व-पर उपकार के कार्य अपने जीवन में करता है और जिसका मन दूषित एवं अशुद्ध होता है उसके वचन अहितकर तथा शरीर से वह हिंसा असत्यमय कार्य करता है, वह मानव उभयलोक में दुर्गति का पात्र होता है। मानव के मन, वचन, शरीर रूप योगत्रय को शुद्ध करने के लिये ऋषभदेव आदि तीर्थंकर महापुरुषों ने षट् कर्तव्यों का निर्देश किया है। इसी विषय का प्रतिपादन, भ० महावीर की शिष्यपरम्परा के अन्तर्गत आचार्य सोभप्रभ ने दर्शाया है जिनेन्द्रपूजा गुरुपर्युपास्तिः, सत्तवानुकम्पा शुभपात्रदानम्। गुणानुरागः श्रुतिरागमस्य, नृजन्मवृक्षस्य फलान्यमूनि ।। (आ० सोमप्रभ-सूक्तिमुक्तावली) सारांश- (१) जिनेन्द्रपूजा, (२) सद्गुरु उपासना, (३) प्राणियों पर अनुकम्पा, (४) श्रेष्ठपात्र में दान तथा करुणादान, (५) अरहन्त आदि पंच परमदेवों में भक्ति, (६) हितप्रदशास्त्र का स्वाध्याय। ये ६ मानवजीवनरूपी वृक्ष के श्रेष्ठफल हैं। इन षट् कर्तव्यों में भगवत्पूजन को प्रथम (मुख्य) कर्तव्य कहा गया है। मानव या श्रावक के दैनिक जीवन में परमात्मपूजन की प्रथम आवश्यकता है। भारतवर्ष में भगवत्पूजा के विविध रीतिरिवाज प्रचलित हो रहे हैं यथा वैदिक संस्कृति में यज्ञपूजा का प्रमुख स्थान है और श्रमणसंस्कृति में भगवत्पूजा में यज्ञपूजा का प्रमुख स्थान माना है। वैदिक संस्कृति में यज्ञ आदि क्रियाकाण्ड के द्वारा अग्नि, चन्द्र, सूर्य आदि देवताओं को प्रसन्न करना प्रयोजन है और श्रमणसंस्कृति में भगवत्पूजा का प्रयोजन पुण्योपार्जन, आत्मशुद्धि, स्वर्ग-प्राप्ति और अन्तिमफल मुक्ति की प्राप्ति है। भारत के अन्य प्रान्तों की अपेक्षा द्रविड़देश में प्राचीन काल में भगवत्पूजा का प्रचार-प्रसार अधिक था। इसका कारण यह है कि दक्षिण भारत में श्रमण-संस्कृति का व्यापक प्रसार था, अतएव दक्षिणभारत श्रमणसंस्कृति और पुरातत्त्व का प्रमुख केन्द्र कहा जाता है। वर्तमान में भारत के प्रायः सभी प्रान्तों में श्रमणसंस्कृति के अनुरूप पूजाकर्म का प्रचार एवं प्रसार हो रहा है। पूजा की परिभाषा "अहंदाचार्यबहुश्रुतेषु प्रवचनेषु वा भावविशुद्धियुक्तः अनुरागो भक्तिः”। (आचार्यपूज्यपादः सर्वार्थसिद्धिः अ,६, सूत्र २४) Jain Educationa international For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012075
Book TitleAryikaratna Gyanmati Abhivandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Jain
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1992
Total Pages822
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size26 MB
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