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________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [४४९ प्रभावी महाकाव्य-सा प्रतीत होता है। इस ग्रंथ की उपयोगिता सर्वत्र सदाकाल तक अभिनंदनीय रहेगी। रचना-कौशल-"इन्द्रध्वज विधान" की लोकप्रियता का मुख्य कारण इस ग्रंथ का प्रशंसनीय रचना-कौशल है। सामान्य जनता करणानुयोग को सरलता से समझते हुए भक्ति-काव्य का रसास्वादन कर सके इस हेतु बोधगम्य सरल भाषा में रचना अनिवार्य थी क्योंकि धर्म-प्रभावना की दिशा में भाषा का भावों के साथ समन्वय लिये हुए सरल रूप होना नितान्त आवश्यक था। यह आवश्यकता विधान को लोकप्रिय बनाने में सार्थक सिद्ध हुई। छन्दों का चयन करने में पूज्य माताजी का दृष्टिकोण शत-प्रतिशत सफल रहा क्योंकि चयनित छन्दों को संगीत की विभिन्न शैलियों में ढालना विधानाचार्यों के लिए इतना सुलभ हो गया है कि विधान के कर्ता एवं श्रोतागणों को प्रभावित करने में पूर्ण सफलता मिलती है। भाषा-सौष्ठव, छन्द-ज्ञान एवं शब्द चयन देखकर इस विधान को पढ़ने-सुनने एवं सक्रिय रूप देने में नाटकीयता बनी रहती है। पढ़ते हुए-श्रवण करते हुए, व्यक्ति भक्ति भावों में अवगाहन करते हुए नहीं अघाते। रचना-प्रणाली में भक्ति-रस महाप्राण होकर काव्य की सरसता में उभर रहा है। परम विदुषी गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी का उद्देश्य काव्यसृजन में साकार हुआ है, बस इसीलिए 'इन्द्रध्वज' सभी विधाओं में अत्यन्त लोकप्रिय बन गया। काव्यात्मक वैशिष्ट्य- काव्य की विशिष्टता का मापदण्ड उसकी लोकप्रियता पर निर्भर करता है। इस दृष्टि से न केवल उत्तर, अपितु दक्षिणी भारत में भी इस विधान की सर्वत्र ऐसी लोकप्रियता बढ़ी कि अनेक नगरों ग्रामों-तीर्थक्षेत्रों में विशाल स्तर पर कई-कई बार भव्य आयोजन हो चुके हैं, हो रहे हैं और होते रहेंगे। वर्णन करने का चमत्कारपूर्ण ढंग काव्य की विशिष्टता में मुखरित हुआ है। सहज स्वाभाविक अलंकारों ने काव्य की विशिष्टता में पूर्ण योगदान दिया है। जयमाला वर्णन में तो काव्य की विशिष्टता ने गजब कर दिया है। ऐसा प्रतीत होता है, मानो स्वयं माताजी उन चैत्यालयों को प्रत्यक्ष देखती हुई वर्णन कर रही हों। तब विधान के इन्द्र-इन्द्राणियों श्रोताओं को ऐसा लगता है, जैसे वे सभी उन चैत्यालयों के वैभव को प्रत्यक्ष देख रहे हों और वहीं मानो पहुँच गये हों। विस्तृत वर्णन में भी बोझिलता-थकावट नहीं लगती और काव्यानन्द में झूमते रहते हैं। शान्त रस के झरने बहते रहते हैं और विधानकर्ता भक्ति की तरल तरङ्गों में मस्त हो जाते हैं। आध्यात्मिक प्रवाह में कभी-कभी तो चारों अनुयोगों का सुन्दर संगम हो जाता है। व्याकरण की दृष्टि से भी शब्द-गठन, वाक्य-विन्यास का सृजन काव्य-वैशिष्ट्य में सहायक ही हुआ है। माताजी के अपने उद्देश्य में काव्यात्मक, वैशिष्ट्य सहायक सिद्ध हुआ है, जोकि प्रशंसनीय है। भक्ति प्रधान मौलिक रचना-"इस ग्रंथ का आधार यद्यपि मूल संस्कृत कृति ही है, फिर भी यह रचना मौलिक है।" क्षु. श्री मोती सागरजी महाराज का यह कथन सत्य है। क्योंकि मूलकूति का यह ग्रंथ मात्र रूपान्तरण ही नहीं है, अपितु सिद्धान्त वाचस्पति, न्याय प्रभाकर गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी ने 'तिलोयपण्णत्ति', 'त्रिलोकसार' आदि के गहन अध्यनन से स्वतंत्र रूप में मौलिक सृजन किया है। पूज्य माताजी की जिनेन्द्र भक्ति असीम-असीम है, जो काव्य रूप में मुखरित हो उठी है। भावपक्ष एवं कलापक्ष दोनों दृष्टि से यह भक्तिप्रधान मौलिक काव्य-ग्रंथ अपने आप में अनूठा बन पड़ा है। ५० महापूजाओं एवं ५१ जयमालाओं से परिपूर्ण ग्रंथ के आधार पर विधान करने वालों के रोम-रोम में भक्ति भावना इस प्रकार व्याप्त हो जाती है कि समस्त मण्डप भक्ति के शान्त रत्नाकर में निमग्न हुए बिना नहीं रहता। ऐसी स्थिति में भक्त समुदाय के अन्तःकरण में जिनेन्द्र भक्ति तो प्रधान रूप में बनी रहती ही है, किन्तु रचयित्री के प्रति भी श्रद्धा से नत मस्तक हुए बिना नहीं रहता। वाणी-वीणा के तार झंकृत होते ही इन्द्रध्वज-विधान का मण्डप ऐसा लगता है मानो इन्द्रादि देव समूह प्रत्यक्ष ४५८ अकृत्रिम चैत्यालयों की वंदना-पूजा का महोत्सव कर रहे हों। भक्ति ही सुर सरिता में अवगाहन करते हुए भक्त-समुदाय जिनेन्द्र भक्ति के प्रशस्त राग-रंग में नृत्य-गीतादि द्वारा मस्त हो जाते हैं। सारा वातावरण भक्ति-संगीत में सराबोर हो जाता है। लोकोपयोगी स्वरूप-सम्यग्दर्शन का आठवां अंग धर्म-प्रभावना माना जाता है। 'इन्द्रध्वज विधान' इस हेतु सक्षम आयोजन है। यही कारण है कि यह विधान राष्ट्रभाषा हिन्दी में सुलभ होते ही प्रत्येक मन्दिर एवं संस्था में पहुँच गया। हमने अपने आचार्यत्व में पंचकल्याणक प्रतिष्ठोत्सव स्तर पर विशाल, विशाल रूप में कई तीर्थ क्षेत्रों, नगरों-महानगरों एवं ग्रामों में महान्-महान् आचार्य-मुनि-संतों के सानिध्य में 'इन्द्रध्वज विधान' सानन्द सम्पन्न कराकर अपूर्व धर्म-प्रभावना की। श्री सम्मेदशिखर तीर्थ क्षेत्र, देवगढ़ अतिशय क्षेत्र, आगरा, अहमदाबाद, हिम्मतनगर आदि कई स्थानों पर ऐतिहासिक अपूर्व प्रभावनात्मक 'इन्द्रध्वज' हुए। देवगढ़ (उ.प्र.) क्षेत्र के शिखर पर मुनि श्री सुधासागरजी महाराज के सानिध्य में विश्व में प्रथम बार एक हजार आठ इन्द्र-इन्द्राणियों ने ऐसा इन्द्रध्वज विधान (हमारे विधि विधान में) किया कि उसी के परिणामस्वरूप देवगढ़ क्षेत्र के ५१ मन्दिरों का जीर्णोद्धार हो गया और ५०० विशाल प्रतिमाजी की प्रतिष्ठापना होकर विश्व में प्रथम बार पंच गजरथ महोत्सव हुआ। यह सब गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी की मौलिक कृति 'इन्द्रध्वज विधान' का ही मूल प्रभाव था। माताजी ने इसमें दक्षिण की परम्परानुसार शान्तिधारा-पुष्पाञ्जलि-विधि जाप्यादि देकर समन्वय अच्छा किया है। इससे ग्रंथ सबके लिए उपयोगी सिद्ध हुआ। निष्कर्ष रूप में - पूजा-साहित्य की कृतियों में माताजी विरचित 'इन्द्रध्वज विधान' अन्य सभी विधान ग्रंथों में अधिक प्रचलित हुआ और भारत के सभी क्षेत्रों में इसका आयोजन विशाल स्तर पर होने से सर्वत्र जिन धर्म की महत्त्वपूर्ण प्रभावना हुई। लोकप्रियता निरन्तर बढ़ती रही। जिन धर्म की प्रभावना में 'इन्द्रध्वज विधान' के आयोजनों की स्वतंत्र भारत में महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है। जैन जगत्, पूज्य माताजी के इस उपकार के प्रति सदैव ऋणी , रहेगा। समीक्षा के आलोक में 'इन्द्रध्वज विधान' उच्चकोटि के पूजा-साहित्यान्तर्गत एक महत्त्वपूर्ण काव्य-ग्रंथ है। इस ग्रंथ में करणानुयोग का Jain Educationa international For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012075
Book TitleAryikaratna Gyanmati Abhivandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Jain
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1992
Total Pages822
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size26 MB
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