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गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ
उनको कल्याण के मार्ग में भी अग्रसर करने के लिए प्रेरणा दी और उन्हें मुनि आर्थिका के उच्च पद पर आसीन कराया, यह आपके हृदर उदारता और वात्सल्यता अनुकरणीय है।
चारित्र चक्रवर्ती आचार्यश्री शान्तिसागरजी की पट्ट परम्परा के चतुर्थ पट्टाधीश आचार्य श्री अजितसागरजी महाराज को पूर्ण प्रयत्न व करके आचार्य श्री शिवसागरजी महाराजजी से सन् १९६१ के सीकर चातुर्मास में मुनि दीक्षा दिलवाई। इसी प्रकार अनेकों का मार्ग प्रशस्त किया।
माताजी के अन्दर सदा यह देखा कि जिस कार्य को इन्होंने मन में विचारा उसको पूर्णरूप से किया ही, चाहे कितने आपत्ति विघ्न क आवे परन्तु धैर्यपूर्वक कार्य को सफल बनाना आपका लक्ष्य रहा। इसी धैर्य एवं साहस के बल पर आज अद्वितीय जम्बूद्वीप की विशाल साकार रूप लिए हुए सभी के हृदय की आनंददायिनी बन चुकी है।
मेरी दीक्षा के एक वर्ष पश्चात् १९६२ में गुरुवर आचार्य श्री शिवसागरजी महाराज से आज्ञा लेकर हम तीन माताजी (पद्मावती, जिनम श्रेष्ठमती) को साथ लेकर माताजी ने यू०पी०, बंगाल, बिहार, उड़ीसा, आंध्रा, कर्नाटक, महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश आदि प्रान्तों में मंगलविहार, तीर्थ व एवं महती धर्म प्रभावना की तथा संघवृद्धि भी होती रही।
साहित्य रचना का कार्य सर्व प्रथम श्रवणबेलगोल में प्रारंभ किया, चातुर्मास के समय में भगवान बाहुबली के चरणसानिध्य में रहकर मा ने बाहुबली जावणी हिंदी, बाहुबली स्तोत्र संस्कृत, बाहुबली स्तोत्र कन्नड़ तथा बारह भावना कन्नड़, इस प्रकार साहित्य सृजन का कार्य किया । से लेकर अभी तक लेखन कार्य चालू है, ऐसे महत्वपूर्ण कार्य महानात्माओं के द्वारा ही हो सकते हैं। वास्तव में आपका जीवन कल्पवृक्षोपम हितक
मैं माताजी के प्रति अपनी कृतज्ञता अभिव्यक्त करते हुए उनके चरणों में विनय प्रकट करते हुए उनके चिरकाल तक शुभाशीर्वाद के रहने की सदैव कामना करती हूँ 'यावन्निर्वाण सम्प्राप्तिः' निर्वाण प्राप्तिपर्यंत मुझे आपके चरणों का आश्रय प्राप्त होता रहे।
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श्रद्धा के
सुमन
जिनकी आत्म साधना से पावन हो जाता मन है, पूज्य आर्यिका ज्ञानमती को वंदन अभिवंदन है।
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आदर्श साध्वी सन् १९३४ में टिकैतनगर (बाराबंकी) अयोध्या क्षेत्र के निकट उत्तर प्रदेश प्रांत में पिता छोटेलालजी, मी मोहिनी की कु जन्म लेने वाली मैना नाम की कन्या अपने नाम को सार्थक करती हुई संसार में अद्भुत कार्य करके दिखायेगी, ये कौन जानता था। 'होनहार वि के होत चीकने पात' अर्थात् संसार में जब पुण्यशाली जीव का जन्म होता है तब विश्व में एक अलौकिक शांति का वातावरण दिखने लगता है। परमविदुषी पूज्य माताजी - पूज्य माताजी ने १७ वर्ष की अल्पायु में ही असिधारा ब्रह्मचर्य व्रत धारणकर आ० देशभूषणजी से क्षुल्लिका लेकर एवं आ० वीरसागरजी से आर्यिका दीक्षा लेकर अष्टसहस्री आदि बड़े-बड़े शास्त्रों की रचना करके समाज में एक आदर्श उपस्थित कर दिया। परमतपस्वी माता पूज्य माताजी की तपस्या देखकर सभी आश्चर्य कर रहे हैं, छहों रसों में से १-२ रस लेकर मात्र मट्ठा चावल लेकर जीवन को बिता रही हैं। ऐसी माता को धन्य है, जो इस कलियुग में भी अपने चारित्र में दृढ़ हैं।
परम उपकारी माता – पूज्य माताजी का जीवन अधिकतर दूसरे के उपकार में ही बीत रहा है। अब तक पूज्य माताजी ने कितने ही शिष्य शिष्याओं को गृहजंजाल से निकालकर कल्याण मार्ग में लगाया है, इनमें से मैं भी एक शिष्या हूँ, मुझे भी पूज्य माताजी ने गृहजंजाल से निका कल्याण-मार्ग में लगाया। आज पूज्य माताजी की देन है जो मैंने अनेक शास्त्रों का पद्यानुवाद एवं रचना की है तथा समाज में धर्म प्रभावना हुए अपने चारित्र में दृढ़ है जब मैं बुन्देलखंड की यात्रा हेतु निकली थी, उस समय मुझे पूज्य माताजी ने बहुत रोका। फिर भी यात्रा की भ से मैं उनके सानिध्य में अधिक दिन नहीं रह सकी।
आर्यिका श्री अभयमती मार
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