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________________ १२] धारोपसर्ग विजयी माता पूज्य माताजी के जीवन में अनेक उपसर्ग संकट आये, पर माताजी ने बड़े शांतिभाव से उन्हें सहन किया। जब मैं ब्रह्मचारिणी अवस्था में सम्मेदशिखर के रास्ते में चौका लगाती थी, एक दिन की बात है, माताजी को जंगल में ही सोना पड़ा, सभी लोगों ने कहा कि माताजी आप सब गाँव में पधारें, यहाँ रात्रि को सिंह निकलता है। पूज्य माताजी ने कहा — सिंह हमारा कुछ नहीं कर सकता, हम साधु रात्रि में विहार कभी नहीं करते । इस प्रकार रातभर णमोकार मंत्र पढ़ते रहे, सिंह का पता नहीं चला, कहाँ पर है। इसी तरह अनेक घटनाएँ हैं, अगर उन्हें लिखें तो पूरा शास्त्र बन जावे ! जम्बूद्वीप की पावन प्रेरिका अजमेर से मैंने बन्देलखंड की यात्रा हेतु संघ छोड़ा था, पर यह कौन जानता था कि मुझे आर्यिका रत्नमती माताजी के दर्शन नहीं मिलेंगे। होनहार बलवान होती है। मैंने मात्र दो वर्ष के लिए संघ छोड़ा था, पर १४ वर्ष यात्रा में निकल गए। मुझे माताजी की खूब याद आती थी, फिर भी मैं प्रभावना में रह गई, कहीं विद्यालय, स्कूल खुलवाना, कहीं विधान कराना आदि । इधर पूज्य माताजी ने हस्तिनापुर में आकर एक अपूर्व जम्बूद्वीप की रचना को साकार रूप में फलीभूत किया। जब मैं सुनती थी कि हस्तिनापुर में जम्बूद्वीप की रचना बन रही है, तब मुझे बड़ी प्रसन्नता होती थी और यह भावना भाती रहती थी कि जम्बूद्वीप के दर्शन मुझे कब होंगे। ज्ञानज्योति की प्रेरिका पुनः मैंने सुना कि ज्ञानज्योति का प्रवर्तन प्रधानमंत्री श्रीमती इन्दिरा गांधी द्वारा दिल्ली में हो रहा है। ये तो पूज्य माताजी ज्ञानमतीजी बुद्धि का विकास या पूर्व भव का संस्कार समझना चाहिए, जो इतना बड़ा कार्य करके संसार को दिखा दिया। संस्थान का जन्म - इस दिगंबर जैन त्रिलोक शोध संस्थान में पहले ब्र० मोतीचंद, ब्र० रवीन्द्र कुमार जी, ब्र० मालती, ब्र० माधुरी आदि कार्यभार को सँभालते थे। वर्तमान में ब्र० रवीन्द्र कुमारजी जम्बूद्वीप के अध्यक्ष रूप में सारे कार्यभार को संभालने में कर्मठशील है। जो २० वर्षों से पूज्य माताजी की सेवा में निःस्वार्थ दृष्टि से संलग्न है और सभी पूज्य माताजी को शिष्य शिष्याएँ आज्ञा में लगी हुई हैं। वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला - सम्यग्ज्ञान पत्रिका इसी संस्था के माध्यम से "सम्यग्ज्ञान" नाम की पत्रिका निकलती है, जिसके अंदर चारों अनुयोगों का बड़ा सुन्दर विवेचन रहता है। जिसमें सुंदर-सुंदर तत्त्वचर्चा एवं कथाएँ पढ़कर बड़ा आनंद का अनुभव आता है। ये सब पूज्य माताजी की ही देन है। पंचकल्याणक प्रतिष्ठाएँ -जभी से लेकर अभी तक जम्बूद्वीप में ५ बार पंचकल्याणक प्रतिष्ठा बड़ी जोरों से लड़े ठाट-बाट के साथ हुई। एक बार सन् १९८७ के पंचकल्याणक प्रतिष्ठा में मुझे भी देखने का सौभाग्य मिला। जिसमें आर. श्री विमलसागर जी महाराज के सघ का भी निमंत्रण के अनुसार आगमन हुआ था। अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोगी – पूज्य माताजी की लेखनी में बड़ा चमत्कार है, विशेष अस्वस्थ होकर भी निरंतर बड़ी तेजी के साथ लेखनी चलाती रहती हैं। आपकी किसी साधु से उपमा नहीं लग सकती, इन सबको पूर्व भव की नैसर्गिक प्रतिभा ही कहना पड़ेगा । विधान वाचस्पति - जिस प्रकार इंद्र अपने-अपने परिवार के साथ आकर नंदीश्वर द्वीप में विधान करते हैं, उसी प्रकार मानो पृथ्वी के इंद्र पूज्य माताजी द्वारा रचित इंद्रध्वज, कल्पद्रुम आदि विधानों का विशेष रूप से महोत्सव करते हैं। इस समय विधानों की चारों तरफ होड़ मची है। — गागर में सागर- -पूज्य माताजी ने अभी तक इतनी पद्य एवं गद्य में रचनाएँ कीं कि गागर में सागर को भर दिया, इनकी रचनाओं की कोई उपमा नहीं सकता पूज्यपाद सूरि के समान ही पूज्य माताजी की रचनाओं में महानता दिख रही है। अष्टसही जैसे क्लिष्ट विषय को भी सरल बना दिया है। जम्बूद्वीप की विशेषता - जम्बूद्वीप में सबसे बड़ी विशेषता मुझे यह दिखी कि जितने भी विद्यार्थी पढ़कर निकले, वे सभी विद्वान् एवं शास्त्री बनकर निकले, जिनके द्वारा आज जगह-जगह धर्मप्रचार हो रहा है, कोई वेदी प्रतिष्ठा करा रहे हैं तो कोई इंद्रध्वज विधान आदि करा रहे हैं। इन विद्वानों की बोलने की शैली भी बड़ी सुंदर है, जिससे लोग प्रभावित होते हैं। गुणों की गरिमा माताजी - जिस प्रकार आकाश में तारों की संख्या एवं शरीर में रोम की संख्या कोई गिन नहीं सकता, उसी प्रकार पूज्य माताजी के गुणों का वर्णन मैं कर नहीं सकती। पूज्य माताजी ने अपने जीवनकाल में बड़े-बड़े कार्य करके समाज के सामने एक आदर्श प्रस्तुत किया है। मुझे भी पूज्य माताजी घर से निकाल कर महान् उपकार किया है। इतना ही कहकर अंत में पूज्य माताजी के प्रति मैं अपनी विनयांजलि अर्पण करती हूँ एवं पूज्य माताजी का आशीर्वाद सदैव मुझे मिलता रहे, यही कामना करती हूँ। Jain Educationa International किस मुख से वर्णन करूँ • आर्यिका श्री शिवमतीजी [संघस्थ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी ] ― पूज्य माताजी के गुणों का वर्णन मैं किस मुख से कर सकती हूँ। ऐसी साक्षात् सरस्वती माता को पाकर मैं धन्य हुई, मैंने पूर्व जन्मों में कुछ विशेष ही पुण्य संचित किया होगा, जिसके फलस्वरूप मैं ऐसे गुरु को पाकर कृतकृत्य हो गई। इनकी वाणी में अमृत भरा हुआ है। जो भी भक्तगण आते हैं नत मस्तक होकर सिर झुकाते है, इनकी अमृतवाणी सुनकर गदगद हो जाते हैं, इनका दर्शन करने के लिए प्यासे रहते हैं। हम कितने भाग्यशाली हैं, साक्षात् हमको अपने पास रखकर पहला भाग, अ आ इ ई से लेकर जीवकांड, कर्मकांड आदि ग्रंथों का अध्ययन कराकर चारित्र को ग्रहण करा दिया। मोक्ष मार्ग को बताने वाली, संसार के कीचड़ से निकालकर प्रशस्त मार्ग बतलाने वाली पूज्य ज्ञानमती माताजी के उपकार को जन्म-जन्म में भी मैं भूल नहीं सकती। आपका दर्शन मैंने श्रवणबेलगोला में उन्नीस सौ पैसठ में किया था। आपने हमको वहीं पर संसार से निकालने का उपाय किया तथा सदैव शिक्षा देती थीं कि कीचड़ में पैर रखकर धोने के बजाय कीचड़ में पैर नहीं रखना अच्छा है। ऐसा आपने किया, वहा रास्ता दूसरों को सिखाया आपने पूरा प्रयास करके For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.012075
Book TitleAryikaratna Gyanmati Abhivandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Jain
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1992
Total Pages822
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size26 MB
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