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गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ
हमको घर से निकाला, मैं इसके लिए चिर ऋणी हूँ।
आप चारित्र चक्रवर्ती आचार्य श्री शांतिसागरजी महाराज की परंपरा की सर्वप्रथम कुमारी कन्या श्रुतमाता ज्ञानमती माताजी हैं। पूज्य माताजी ने अष्टसहस्री, समयसार, नियमसार, व्याकरण आदि उच्चकोटि के ग्रंथों के अनुवाद में अपने अमूल्य समय को व्यतीत किया है। अभी भी लेखनी सतत् चलती रहती है। आपके बारे में किन शब्दों में वर्णन करूँ, आपने इतना सुन्दर शब्दों में कन्नड़ में बारह भावना को बाहुबली के सानिध्य में बैठकर बनाया है, जिसे आज भी वहाँ के लोग स्वर से गाते हैं एवं आपको स्मरण करते हैं। बाहुबली के चरणों में एक वर्ष रहकर पंद्रह दिवस मौन व्रत लेकर पहाड़ पर ध्यान किया था, ध्यान में आपको उपलब्ध हुई जम्बूद्वीप की रचना, नंदीश्वर पंचमेरु आदि अकृत्रिम चैत्यालयों के दर्शन किये, चार सौ अट्ठावन चैत्यालयों के दर्शन करके मन को उज्ज्वल बनाया, तब से आपको उसे साकार बनाने की उत्कंठा लगी हुई थी आज जम्बूद्वीप को भूतल पर बनाने का श्रेय आपको ही है। एक साथ दो सौ पांच प्रतिमाओं का दर्शन करने को यहीं पर मिलेगा। ऐसे जम्बूद्वीप का दर्शन हम लोगों को सौभाग्य से मिल रहा है। पहले हस्तिनापुर के दर्शन मैंने कभी नहीं किये थे। आपके साथ यहां पर रहने का मौका मिला। यहाँ पर तीन तीर्थंकरों के चार-चार कल्याणक हुए हैं। यहाँ मेरे को सप्तम प्रतिमा आपने दिया था। बाद में आपके आशीर्वाद से आचार्य श्री धर्मसागरजी महाराज से मुझे आर्यिका दीक्षा दिलाई थी आपने ही मेरे को मोक्ष मार्ग बताया है। आपके प्रति मैं विनयांजलि अर्पित करती हुई यह भावना भाती हूँ कि आपके समान गुरु मुझे भव-भव में मिले।
यह युग आर्यिकाओं का युग
है
आर्यिका श्री स्याद्वादमती माताजी
नारी जीवन की गौरवगाथा जिनकी रग-रग से प्रस्फुटित हो रही है, ऐसी गणिनी आर्यिकारत्र पूज्या ज्ञानमती माताजी के शब्दों में यह युग आर्थिकाओं का युग है, ' से एक महान् प्रेरणा व जागृति मिलती है। आपके ये शब्द जीवन को चुनौती दे रहे हैं। जम्बूद्वीप के दर्शन करते समय माताजी के ये मधुर शब्द मुझे सुनने को मिले थे। आपने कहा था- इस युग में ग्रंथों की टीकाएँ लिखने का महान् कार्य आर्यिकाओं ने किया है, तुम भी एक ग्रंथ की टीका करो पर मैं अल्पज्ञा क्या कर सकती हूँ, कहाँ सूर्य, कहाँ दीपक ? प्रतिकूलता में भी अनुकूलता - सैकड़ों प्रतिकूलताओं को भी अनुकूलता का अनुभव आपके अभीक्ष्ण ज्ञान व चिन्तन तथा ध्यान का ही फल है। शरीर, समाज व साधर्मियों की अनेक प्रतिकूलताओं को अनुकूलतावत् सहज झेलकर काँटों से दूर, गुलाब की महक को बिखेरने वाली माताजी ने जीवन में कीचड़ में कमलवत् रहकर सर्वलोक को सुरभित किया है।
विलक्षणा आर्यिका रत्न - पूज्या माताजी ज्ञानध्यान की अनूठी कीर्ति हैं। इस कलिकाल में नारी की शक्ति, बुद्धि विकास की क्षमता का अनुपम परिचय आपके महान् जीवन से मिलता है। बड़े-बड़े कार्यों को अपनी बुद्धि और तर्क की कसौटी पर कसकर सरलता से कर डालना आपकी महानता है। व्याकरण के क्षेत्र में इस कलिकाल में आपको कोई जीत नहीं पाया। आपके बड़े-बड़े कार्यों, नवीन रचनाओं व नवीन साहित्य तथा नवीन-नवीन सूझ-बूझ ने देश-विदेश के नर-नारियों को अपनी ओर आकर्षित किया है।
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पूज्या माताजी की स्वस्थता, धर्म-ध्यान की प्रखरता तथा दीर्घायु की कामना करती हुई, मैं आपके पावन चरणारविन्द में भाव पुष्पाञ्जलि अर्पण करती हुई पुनः पुनः वन्दामि करती हूँ।
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आर्यिका श्री ज्ञानमती को बारम्बार प्रणाम है
आर्यिका श्री प्रशान्तमतीजी, शिष्या आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज
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'दुर्लभ है संसार में एक यथारथ ज्ञान।'
इस भौतिक परिवेश में सब कुछ सुलभ है, पर एक यथार्थ ज्ञान का होना बहुत दुर्लभ है। समीचीन ज्ञान के साथ समीचीन आचरण सम्यक्त्व चारित्र का एक साथ समन्वय होना प्रायः दुर्लभ है। प्रायः देखा जाता है कि बड़े-बड़े ज्ञानी भी चारित्र से अछूते रह जाते हैं, परन्तु आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी के अन्दर ज्ञान व चारित्र की समन्वित धाराएँ प्रवाहित है।
वे जैन साहित्य गगन में जगमगाते हुए प्रकाश स्तंभ सदृश आलोकित हैं। बीसवीं शताब्दी की प्रथम बाल ब्रह्मचारिणी आर्यिका सभी को नाम सुनकर गौरव होता है कि कलिकाल में भी ऐसे जगमगाते हुए नक्षत्र मौजूद हैं। आपकी लेखनी से प्रसूत चतुरनुयोग का साहित्य सदियों सदियों तक के लिए अमर हो गया। आपके साहित्य से आबालवृद्ध सभी को एक नवी दिशा मिली है। साथ ही जैन संस्कृति/ श्रमण संस्कृति को भी आपने स्थायित्व प्रदान किया। जंबूद्वीप की रचना भी इस क्षेत्र की एक अपूर्व उपलब्धि है। बड़ा हर्ष होता है आपके जीवन को देखकर आपका ज्ञान व साधना इसी तरह अविरल बढ़ती रहे— जैनागम के साहित्य गगन पर, जिनकी कीर्ति अविराम है,
आर्यिका श्री ज्ञानमती को, बारम्बार प्रणाम है।
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