________________
वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला
'मातृवत्सला'
-आर्यिका आदिमती माताजी [शिष्या गणिनी आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी]
इस भारत वसुन्धरा को अनेक महापुरुषों ने अपने जन्म से अलंकृत किया एवं समीचीन धर्म को धारण कर धर्म का प्रचार-प्रसार किया।
बीसवीं सदी में जब प्रायः मुनिधर्म का लोप हो रहा था उस समय चारित्र चक्रवर्ती आचार्य श्री शान्तिसागरजी महाराज ने पनः मुनिधर्म को पूर्णरूपेण जीवन्त रूप दिया तथा अपने प्रधान शिष्य वीरसागरजी महाराज को आपने अपने आचार्यपट्ट पर आसीन किया।
भगवान् आदिनाथ की पुत्री ब्राह्मी-सुन्दरी बालब्रह्मचारिणी रहीं एवं आर्यिका दीक्षा लेकर जन्म सफल किया, उसी पथ का अनुसरण करने वाली प्रथम बालब्रह्मचारिणी धर्म प्रभाविका गणिनी आर्यिका श्री ज्ञानमतीजीमाताजी हुई हैं !
आचार्य श्री देशभूषणजी महाराज ने सन् १९५२ में बाराबंकी में चातुर्मास किया था, उस समय कु० मैना (ज्ञानमतीजी माताजी) ने भी टिकैतनगर से बाराबंकी आकर आचार्य संघ के दर्शन किये और पूर्व भावना के अनुसार आर्यिका दीक्षा लेने के लिए कटिबद्ध हो गईं। उस समय १७ वर्ष की उम्र थी, इतनी कम अवस्था में पहले किसी ने दीक्षा ली भी नहीं थी। सारा समाज और परिवार के लोगों ने बहुत संघर्ष किया, किन्तु ये अपने आप में पूर्ण दृढ़ रहीं। इनका दृढ़ संकल्प देखकर वातावरण के अनुसार आचार्य श्री ने सप्तम प्रतिमा के व्रत दिये।
चातुर्मास के पश्चात् आचार्य श्री ने विहार करते हुए आगरा छीपीटोला में पदार्पण किया, दर्शन के लिए जनता उमड़ पड़ी, मैं उस समय वहीं पर थी, लोगों में चर्चा हो रही थी, आचार्य श्री के संघ में बहुत छोटी कुंवारी लड़की है, उस समय किसी ने कुंवारी लड़की को साधु संघ में रहते हुए देखा भी नहीं था, इसलिये देखने का अधिक कौतुक था। किन्तु निकटता से मुझे सानिध्य प्राप्त नहीं हुआ।
वहां से विहार करके आचार्य संघ महावीरजी पहुंचा। यहां पर सन् १९५३ में अतिशय क्षेत्र महावीरजी में बा०७० मैना को आचार्य श्री ने क्षुल्लिका दीक्षा प्रदान की और इनकी वीरता को देखकर वीरमती सार्थक नाम रखा। दो वर्ष पश्चात् ही आचार्य श्री शान्तिसागरजी महाराज के पट्टाधीश आचार्य श्री वीरसागरजी महाराज से आर्यिका दीक्षा ग्रहण की। इनका विशिष्ट ज्ञान का क्षयोपशम देखकर आचार्य श्री ने ज्ञानमती नाम रखा।
जयपुर खानियां में आचार्य श्री वीरसागरजी महाराज का समाधिमरण हुआ तथा चातुर्मास के पश्चात् नवीन आचार्य शिवसागरजी महाराज ने अपने संघ सहित गिरनार सिद्धक्षेत्र की यात्रा के लिए प्रस्थान किया। इसी बीच संघ का पदार्पण अजमेर में भी हुआ था, उस समय माताजी का दर्शन किया और देखा माताजी सतत अध्ययन और अध्यापन के कार्य में निमग्न रहती थीं। माताजी के प्रथम दर्शन से अपार आनंद हुआ और ऐसा लगा मानो चिर वियुक्त जननी ही मिल गई हो, आत्मसाधना के मार्ग पर अग्रसर होने के लिए हस्तावलंबनस्वरूप आर्यिका की खोज थी उस की सम्पूर्ति मातृवत्सला अभीक्षण ज्ञानोपयोगी, हित-मित-मृदु-उपदेष्ट्री आर्यिका ज्ञानमतीजी माताजी के मिलने पर हो गई हो, ऐसा महसूस हुआ। माताजी की भी मुझ पर असीम कृपा थी, किन्तु उस समय मैं घर से निकल नहीं सकी, मैंने यह निश्चय कर लिया था और माताजी से कह दिया था कि आपका अजमेर चातुर्मास होगा उस समय मैं आपके सानिध्य में रह कर पढ़ाई करूँगी और साथ में ही रहूंगी, वह सुयोग एक वर्ष व्यतीत होने के पश्चात् मिला, माताजी की सत्प्रेरणा ने मुझ पर चुम्बकीय असर किया एवं आपकी कृपादृष्टि से १९६१ में सीकर (राज.) के चातुर्मास में परमपूज्य प्रातःस्मरणीय, वात्सल्यह्रदय गुरूवर्य आचार्य श्री १०८ शिवसागरजी महाराज से स्त्रियोचित उत्कृष्ट संयमरूप आर्यिका दीक्षा ग्रहण करने का सुअवसर प्राप्त हुआ। माताजी ने मुझे सिद्धांत, न्याय, व्याकरण साहित्य आदि ग्रन्थों का अध्ययन कराया। वास्तव में माताजी के मुझ पर अनंत उपकार हैं, माताजी ने संरक्षण और अध्ययन के साथ-साथ मुझे मोक्षमार्ग में भी लगाया, इसलिए सच्ची गुरुमाता आप ही हैं। आपके निकट सभी आश्रय प्राप्त कर अपने को धन्य मानते हैं, यह आपके हृदय की विशालता है।
शिष्यवर्ग का संग्रह और उनको सर्वांगीण अध्ययन कराने का लक्ष्य आपका सदा ही रहा । माताजी वास्तव में सरस्वती की अवतार हैं, कितने महान् ग्रंथों की हिन्दी-संस्कृत टीकाएँ की हैं, संस्कृत-हिन्दी पद्य रचना और भी स्वतंत्र ग्रन्थ रचनाएं की हैं यह कोई सामान्य कार्य नहीं है, सचमुच में माताजी ज्ञान की भंडार हैं इसलिए ज्ञान का खजाना कभी खाली हो नहीं सकता।
एक बार सीकर चातुर्मास में मैंने अनुभव किया माताजी मुझे चन्द्रप्रभू काव्य पढ़ा रही थीं, पढ़ाने के पश्चात् जितने काव्य पढ़ाये वे सब आपने मुखाग्र ज्यों के त्यों बिना देखे बोल दिये, यह देखकर मुझे बहुत हर्ष और आश्चर्य हुआ कि माताजी अकलंक सदृश एक पाठी हैं।
दो या तीन बार स्वप्न में देखा जो व्याकरण के सूत्र माताजी ने कभी भी नहीं पढ़े थे, वे सूत्र स्वप्न में पढ़े, पश्चात् उन सूत्रों की खोज की तो शब्दार्णव और महाव्रती आदि व्याकरण में पाये गये, इस प्रकार जन्मान्तर के दृढ़ संस्कारवश इस जन्म में भी इतना विशिष्ट क्षयोपशम है, तभी दूसरों का अल्प अवलंबन पाकर ही स्वतः अपनी बुद्धि के बल पर अपने सभी शिष्य-शिष्याओं को अध्ययन कराकर विद्वान् बनाया, इतना ही नहीं
Jain Educationa international
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org