________________
गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ..
पूरा नक्शा समझा दिया था और संघ में अध्ययन के लिए आये हुए पं० रतनचंदजी मुख्यार से कभी त्रिलोकसार तथा लोक विभाग ग्रंथ लेकर चर्चा करती थीं। मैं भी वहाँ सुनने के लिए बैठ जाती। माताजी का जैनभूगोल ज्ञान तथा गणित ज्ञान भी पक्का था। उनसे उसका भी मैंने थोड़ा-थोड़ा ज्ञान प्राप्त किया। वे कभी कुछ विषय को याद करके सुनाने को कहतीं तो मैं कहती कि माताजी! मुझे आप पढ़ा दो मैं पीछे याद करती रहूँगी। न मालूम आपका यह संयोग कितने दिन तक मिलेगा। कभी-कभी मैं कहती कि माताजी ये परीक्षामुख आदि न्याय के विषय मुझे कुछ भी समझ में नहीं आते, तब माताजी कहतीं कोई बात नहीं, तुम आगे-आगे पढ़ती रहो जैसे-जैसे पढ़ती रहोगी वैसे-वैसे विषय परिपक्व होता जायेगा। जहाँ कुछ विषय समझ में नहीं आया, वहाँ पर भी अटकना नहीं, आगे पढ़ते जाना, दूसरी बार पढ़ोगी तब अपने आप विषय खुलेगा। इस प्रकार से चर्चा करते-करते हम माताजी के पास पढ़ते थे।
प्रतापगढ़ चातुर्मास के अनन्तर संघ का विहार महावीरजी की तरफ हो गया, वहाँ पर भी शांतिवीरनगर में पंचकल्याणक प्रतिष्ठा होने वाली थी, वहाँ पहुँचने के बाद प्रतिष्ठा के ८ दिन पहले ही संघ नायक आ० श्री शिवसागरजी का सिर्फ आठ दिन की बीमार अवस्था में ही एकाएक स्वर्गवास हो गया, सभी जनता को तथा संघस्थ त्यागियों को अचानक वज्रपात जैसा दुःख हुआ। उसके अनंतर उनके धर्मसागरजी महाराज भी वहाँ प्रतिष्ठा पर आये थे और आ० वीरसागरजी के ही दीक्षित सबसे वरिष्ठ शिष्य थे, सभी त्यागियों की सलाह से आचार्यपट्ट उनको दे दिया गया और सन् १९६९ में जयपुर से कुछ कारणवश संघ २-३ टुकड़ों में बँट गया, पुनः हमारा तथा पूज्य माताजी का भी वियोग हो गया और आगे माताजी ने जो पढ़ाई का बीजारोपण किया था उसी के सहारे मैं आगे पढ़ाई, स्वाध्यायादि करती रही। उसके बाद सन् १९७२ में पूज्य माताजी भी अपने शिष्यों के साथ संघ से अलग विहार करती-करती हस्तिनापुर पहुंची। वहाँ पर उन्होंने अपनी अन्तरंग इच्छा के अनुसार ध्यानपूर्वक जम्बूद्वीप निर्माण का कार्य शुरू किया, उसके लिए अनेक प्रयत्न किये, उनके भाग्योदय से उनके कार्य के योग्य शिष्य भी मिल गये, कार्य की रूपरेखा साकार बनी।
.मुझे परमपूज्य श्रेयांससागरजी महाराज के साथ अनेक जगह विहार करते-करते दक्षिण से सम्मेद शिखरजी तक यात्रा पूर्ण करके लौटते समय मालूम पड़ा कि हस्तिनापुर में सुदर्शन मेरु बन गया है और वहाँ पंचकल्याणक प्रतिष्ठा होने वाली है। अपने विहार के रास्ते में ही गाँव है। शांतिनाथ, कुन्थुनाथ और अरहनाथ भगवान् की जन्मभूमि है। ऐतिहासिक नगरी है और ऐसे पवित्र स्थल पर प०पू० आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी की इच्छानुसार बने हुए मेरु की प्रतिष्ठा हो रही है ऐसे मौके पर जाना ही चाहिये, ऐसा सोचकर समय पर पहुँचने के लिए थोड़ा-थोड़ा, ज्यादा-ज्यादा चलकर प्रतिष्ठा शुरू होने के दो दिन पूर्व में संघ सहित महाराज श्री हस्तिनापुर पहुंचे और पू० माताजी के साथ दस वर्ष बाद पुनर्मिलन हुआ। उनका सभी कार्य देखकर अत्यंत हर्ष हुआ। ८-१० दिन वहाँ प्रतिष्ठा में बीत गये, कुछ माताजी के साथ धार्मिक चर्चाएँ की और वापिस वियोग दिन आ गया। वहाँ से हम संघ सहित मेरठ, दिल्ली की तरफ आ गए। उसके बाद हस्तिनापुर से निकला हुआ 'जम्बूद्वीप ज्ञानज्योति ' रथ मांगीतुंगीजी में भ्रमण करते हुए आया, तब हम महाराज श्री के संघ में वहाँ पर ही थे। उस रथ को देखकर माताजी की बुद्धि कुशलता का और सतत प्रयत्न करने की जिज्ञासा का अनुमान होता था। आज तक माताजी ने जितना भी साहित्य सृजन किया है वह आर्ष परंपरा के अनुसार और नूतन पीढ़ी को आकर्षक लगने वाला हुआ है। हमसे जब भी कोई पूछता है कि हम कौन-सी पुस्तकें पढ़ें अथवा बच्चों को पढ़ने योग्य कौन-सी पुस्तकें हैं? तो हम स्पष्ट कहते हैं कि आप हस्तिनापुर से पुस्तकें मँगवाओ, वहाँ पर छोटे बच्चों से लेकर बूढ़े तक तथा अज्ञानी से लेकर पंडित तक पढ़ने योग्य, सबके मन को आकर्षित करने वाला साहित्य आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी ने निर्माण किया है, जिससे बहुत भारी कमी की पूर्ति हुई है। माताजी को अपनी आयु के करीब २५ वर्ष की अवस्था से ही संग्रहणी की बीमारी लग जाने से शरीर कमजोर हुआ है। बीच-बीच में अन्तराय भी आते हैं, विहार भी होता है, तो भी वे अपनी दैनिक क्रियाएँ तथा साहित्य निर्माण में प्रमाद नहीं करती हैं। धन्य हैं पूज्य माताजी और उनका आत्मबल। उनके जैसी ही शक्ति मुझे भी प्राप्त होवे, यही मैं कामना करती हूँ।
मांगीतुंगी
Jain Educationa international
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org