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जम्बूद्वीप ज्ञानज्योति की
भारत यात्रा
मंगलाचरण
तज्जयति परंज्योतिः समं समस्तैरनन्तपर्यायैः । दर्पणतल इव सकला प्रतिफलति पदार्थ मालिका यत्र ॥
•नादि अनन्त विश्वतत्त्वों के ज्ञाता भगवान् जिनेन्द्रदेव, उनकी दिव्य वचनामृत रूपी जिनवाणी तथा जिनेन्द्र की मुद्रा को साक्षात् धारण करने वाले
अ निर्ग्रन्थ दिगम्बर गुरुओं को मन, वचन, काय पूर्वक नमस्कार करके जम्बूद्वीप ज्ञानज्योति का संक्षिप्त इतिहास प्रारंभ करती हूँ। पुरा
सिद्धान्तों में छिपे हुए भूगोल को पृथ्वी पर साकार रूप देने वाली तथा मेरी लेखनी की प्रेरणास्त्रोत परमपूज्य गणिनी आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी के श्रीचरणों में मेरी सादर प्रणामांजलि प्रेषित है। आशा है गुरु का शुभाशीर्वाद अवश्य ही मेरी लेखनी को बल प्रदान करेगा। जम्बूद्वीप ज्ञानज्योति जहाँ से प्रादुर्भूत हुई, उस पावनस्थली का सर्वप्रथम परिचय प्राप्त करना आवश्यक है। अतः मैं सबसे पहले पाठकों को हस्तिनापुर की वसुन्धरा पर ले चलती हूँ ।
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प्रस्तुति - आर्यिका चन्दनामती
हस्तिनापुर की प्राचीनता -
आज से कोड़ाकोड़ी वर्षों पूर्व तृतीय काल के अंत में इन्द्र की आज्ञा से धनपति कुबेर ने तीर्थंकर आदि त्रेसठ शलाका महापुरुषों के लिए अयोध्या, सम्मेदशिखर, कुण्डलपुर, चंपापुर, पावापुर, उज्जयिनी, हस्तिनापुर आदि नगरियों की रचना की थी। अनादिकालीन परम्परा के अनुसार अयोध्या हमेशा ही तीर्थकरों की जन्मभूमि रही है और सम्मेदशिखर निर्वाणभूमि रही है, किंतु वर्तमान में हुण्डावसर्पिणी काल के प्रभाव से कुछ तीर्थंकरों ने अन्यत्र जन्म लिया और मोक्ष भी अन्य क्षेत्रों से प्राप्त किया। यही कारण है कि हस्तिनापुर की पुण्यभूमि को भी तीर्थंकर की जननी होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ।
भगवान् शान्तिनाथ, कुन्थुनाथ और अरहनाथ इन तीर्थंकरजय ने जन्म लेकर इसी भूमि पर एकछत्र राज्य किया, ये तीनों ही चक्रवर्ती और कामदेव पद के धारी हुए। हस्तिनापुर इनकी राजधानी थी। चक्रवर्ती का वैभव भोगकर, पुनः उसका त्याग कर, जैनेश्वरी दीक्षा लेकर घाति अघाति कर्मों का नाश करके सम्मेदशिखर से निर्वाण प्राप्त किया।
इससे भी पूर्व प्रथम तीर्थंकर भ० आदिनाथ भी वर्षोपवास के अनंतर हस्तिपुर नगरी में चर्चा के लिए आए थे, राजा श्रेयांस और सोमप्रभ ने अपने पूर्वभव के जातिस्मरण हो जाने से उन्हें विधिवत् नवधाभक्तिपूर्वक पड़गाहन कर इक्षुरस का आहार दिया, आज भी वह पवित्र दिवस, अक्षयतृतीया के नाम से जगप्रसिद्ध है हल्लिनापुर और उसके चारों ओर आज भी इक्षु [गन्ने] की सघन खेती देखी जाती है। यहाँ पर आने वाले हर यात्री का मुँह अनायास ही मीठा हो जाता है।
इस प्रकार अयोध्या के समान ही हस्तिनापुर की भी प्राचीनता सिद्ध हो जाती है। हाँ, काल प्रभाव से ये नगरियाँ अब छोटी हो गई है। इनके आस-पास का बहुभाग पर्वत, नदां तथा अन्य प्रदेशों में विभक्त हो गया है। यहीं पर अकंपनाचार्य आदि सात सौ मुनियों पर राजा बलि ने उपसर्ग किया था। विष्णुकुमार मुनि ने उपसर्ग का निवारण कर, रक्षाबन्धन पर्व का शुभारंभ किया। जिसे आज भी लोग श्रावण शुक्ला पूर्णिमा के दिन परस्पर रक्षासूत्र बाँध कर मनाते हैं। अभिनंदन आदि पाँच सौ मुनियों को राजा की आज्ञा से यहीं पर घानी में पेला गया था तथा इसी धरा पर कौरव तथा पांडवों का महाभारत युद्ध भी हुआ। इस प्रकार अनेक इतिहास यहाँ से जुड़े हुए होने से यह क्षेत्र ऐतिहासिक तीर्थक्षेत्र माना जाता है।
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