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गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ
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सौम्य, सरल, सादगी की प्रतिमूर्ति
-ज्ञानयोगी स्वस्तिश्री भट्टारक चारुकीर्ति स्वामीजी
मूडबिद्री [कर्नाटक]
परम पूज्य गणनायिका, आर्यिकारत्न श्री ज्ञानयोगिनी, जगन्मंगला, श्री ज्ञानमती माताजी को अभिवंदन समर्पण विनयांजलि विषय सुनते ही हम हर्ष-विभोर हुए हैं।
"नहि कृतमुपकारं साधवो विस्मरन्ति" यह आर्षोक्ति अक्षरशः सार्थक हुई है।
श्री जगन्मंगला ज्ञानमती माताजी सौम्य, सरल-सादगी की प्रतिमूर्ति हैं। न केवल माताजी ज्ञानमती हैं, किन्तु वे विशुद्ध, सुसिद्धमती भी हैं, ज्ञानयोगिनी भी हैं-दर्पण जैसे, "वक्त्रं वक्ति हि मानसं" तत्त्व को प्रतिबोधित करती हैं। उनसे मेरा अनेक स्थानों पर दर्शन करने का सुअवसर एवं सौभाग्य प्राप्त हुआ है, वे अत्यंत सरल सौम्य की प्रतिमूर्ति हैं, उनसे वार्तालाप एवं वचनामृत सुनने का सुअवसर मिला, मन को अतीव शान्ति मिली थी। उनका अभिवन्दन ग्रंथ समर्पण करना स्तुत्य एवं अभिनंदनीय है। अभिवंदन-वाणी समन्ततः भद्र हो, उनकी "श्रीवाक्" श्री समन्तभद्र वाणी हो, यही हमारा सत्कामना मनोरथ है। श्री जिनेन्द्र अर्हच्चरणों में वन्दना, निवेदना प्रार्थना है।
भद्रं भूयात् वर्धतां जिनशासनम् ।
माता में गुण बहुत हैं
- क्षुल्लिका श्री शांतिमतीजी
पूज्य गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी के गुणों का वर्णन कौन कर सकता है ? माताजी बाल ब्रह्मचारिणी हैं। आपने अनेक शास्त्रों की रचना की और आपकी प्रेरणा से जम्बूद्वीप की रचना, महावीर कमल मंदिर, तीनमूर्ति मंदिर का निर्माण हुआ। आप महातपस्वी हैं। आप अध्ययन में सदा लीन रहती हैं। आप दया और क्षमा की मूर्ति हैं, आपके गुणों का हम तुच्छ बुद्धि कहाँ तक वर्णन करें ? सन् १९८७ में हमको विहार करते समय स्कूटर ने गिरा दिया। बरनावा के रास्ते से हम आपके पास हस्तिनापुर पहुँचे, आपने हमको सँभाला।
सागर में जल बहुत है, गागर में न समाय, माता में गुण बहुत हैं- मुख से कहें न जाय ॥
"प्रथम आगमन वरदान बन गया"
-क्षल्लिका श्री श्रद्धामतीजी [शिष्या गणिनी आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी]
सन् १९८५ में मैं जम्बूद्वीप पंचकल्याणक प्रतिष्ठा पर अपने पारिवारिकजनों के साथ हस्तिनापुर आई थी। उसके बाद पूज्य माताजी का मुझे खूब प्रेम मिला अतः मेरा घर जाने का मन नहीं हुआ।
यहाँ रहकर धार्मिक स्वाध्याय, उपदेश आदि के समागम से मेरे मन में वैराग्य भाव बढ़ता गया। घर-गृहस्थी की जिम्मेदारी से मैं लगभग मुक्त हो ही चुकी थी अतः माताजी की ही छत्रछाया में मैंने अपना शेष जीवन बिताने का निर्णय किया।
कुछ ही समय पूर्व आर्यिका श्री चन्दनामती माताजी की दीक्षा के पश्चात् मेरे मन में भी कुछ दीक्षा के भाव उत्पन्न हुए, किन्तु संकोच के कारण मैं उसे किसी के सामने कह न सकी। एक दिन चन्दनामती माताजी ने मुझे कुछ सम्बोधन किया और मेरी इच्छा जानकर उन्होंने पूज्य बड़ी माताजी से मेरी दीक्षा के लिए निवेदन किया। मुझे आशा नहीं थी कि इतनी जल्दी मेरी प्रार्थना स्वीकार हो जाएगी, किन्तु यह मेरा भाग्य ही था कि पूज्य माताजी ने अपनी जन्मजयंती के दिन ही १५ अकूटबर १९८९ को हस्तिनापुर में मुझे क्षुल्लिका दीक्षा प्रदान कर "श्रद्धामती" नाम रखा।
लगभग ३ वर्षों से मेरी निराबाध साधना चल रही है। मैंने ७-८ वर्षों में माताजी के सानिध्य से जो कुछ प्राप्त किया है उसे कलम के द्वारा लिखा नही जा सकता है । मैंमाताजी के चरणों में वन्दामि करती हुई यही भावना भाती हूँ कि आपके ही मंगल सानिध्य में मुझे जीवन का अन्तिम लक्ष्य समाधि मरण प्राप्त होवे।
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