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गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ
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"पूज्य १०५ आदरणीय ज्ञानमती माताजी के प्रति विनयांजलि"
- चन्द्रप्रभा मोदी, इन्दौर
मुझे यह जानकर अतीव प्रसन्नता हो रही है कि विलम्ब से ही सही पर अपने कर्तव्य के प्रति हम जागृत हुये।
पूज्य १०५ आदरणीय माताजी के समाज पर असीम उपकार हैं। उनका पवित्र जीवन आत्मोद्धार के साथ ही साथ देश, विदेश, प्रांत, समाज व जन-जन के लिये परम कल्याणकारक है। संयम के द्वारा, तप-त्याग के द्वारा, अष्टसहस्री ग्रन्थराज के हिन्दी अनुवाद के माध्यम से, सम्यक्ज्ञान पत्रिका के माध्यम से तथा परमस्थाई जम्बूद्वीप रचना, त्रिमूर्ति मंदिर, अन्य हितकर जिनायतनों द्वारा एवं भारतवर्ष में जम्बूद्वीप ज्ञान-ज्योति के माध्यम से जो आबाल-वृद्धों में स्व-पर कल्याण की भावनाओं का आविर्भाव किया, उसकी परम्परा युग-युगान्तर तक सानन्द चलती रहेगी।
अस्तु, ऐसी महान् उपकार मूर्ति, ब्राह्मी सुन्दरी आर्यिकाओं के आदर्शों को अक्षुण्ण रखने वाली ज्ञानमूर्ति माताजी को शत-शत नमन। आपकी छत्रछाया सदैव-सदैव प्राप्त होती रहे, इन्हीं मंगल-भावनाओं युक्त आशीर्वाद एवं दर्शनाभिलाषी।
दर्शन, ज्ञान एवं चारित्र की मूर्ति
-जिनेन्द्र प्रसाद जैन ठेकेदार, नई दिल्ली महामंत्री : दि० जैन त्रिलोक शोध संस्थान
हमारे पिता श्री श्यामलाल जी एक धार्मिक व्यक्ति और साधुओं के सच्चे भक्त थे। मुनि संघ के दिल्ली में पदार्पण के पहले ही दर्शनार्थ और व्यवस्था बनाने के लिए पहुँच जाते थे। मुझे भी अपने पिताजी से साधु संघ की सेवा करने की प्रेरणा प्राप्त हुई। सन् १९७२ में जब पूज्य १०५ श्री ज्ञानमती माताजी के संघ का दिल्ली पदार्पण हुआ उस समय संघ से दो मुनि श्री वर्द्धमानसागर और श्री सम्भवसागरजी और आदिमती, श्रेष्ठमती तथा रत्नमती माताजी ये तीन आर्यिकायें थीं। साथ में ब्र० सुशीला (वर्तमान आर्यिका श्रुतमती), ब्र० शीला (आर्यिका शिवमती), ब्र० कला, ब्र० मालती और ब्र० मोतीचंदजी अध्ययन हेतु संघ में रहते थे। इन सबके साथ ही दो छोटी-छोटी कुमारी कन्याएं संभवतः १२-१४ वर्ष की आयु वाली थीं, इनमें से ही एक कु० माधुरी थीं, जिन्होंने ३ वर्ष पूर्व पूज्य माताजी से दीक्षा लेकर आर्यिका चंदनामती नाम प्राप्त किया है। उस समय मैंने निवास स्थान ४, टोडरमल रोड पर चौका लगाया, असीम आनन्द प्राप्त हुआ और मुझे प्रथम बार एक शान्त व साहसी आर्यिका के दर्शन हुए तथा उनका सानिध्य प्राप्त हुआ।
धीरे-धीरे पू० माताजी से सम्पर्क बढ़ता गया। पिताजी के साथ मैं जम्बूद्वीप कमेटी में भी जाने-आने लगा। इसस हमें "एक पंथ दो काज" कहावत के अनुसार दोहरा लाभ होने लगा - प्रथम पूज्य माताजी के दर्शन और दूसरा जम्बूद्वीप की प्रगतिशील योजनाओं में भाग लेना। यहाँ एक बात उल्लेखनीय है कि उस समय हस्तिनापुर बड़े मंदिर कमेटी वालों ने एक विशेष कानून लागू किया कि एक व्यक्ति दो कमेटी में नहीं रह सकता। तब मेरे पिताजी ने पू० माताजी के प्रति विशेष श्रद्धा और भक्ति होने से जम्बूद्वीप की कमेटी में ही आना-जाना रखा। इसीलिए मुझे भी आज जम्बूद्वीप स्थल की प्रत्येक गतिविधि में विशेष रुचि रहती है।
आज मैंने जो भी संयम और त्याग धारण किया है सब पूज्य माताजी के ही आशीर्वाद का फल है। सन् १९९० की पंचकल्याणक प्रतिष्ठा में माताजी ने हमें भगवान के माता-पिता बनने का सौभाग्य प्रदान किया। पूज्य माताजी ने चतुर्मुखी विकास तो किया ही है, ये अपने शिष्यों एवं भक्तों के चतुर्मुखी विकास के लिए सदा प्रयत्नशील रहती हैं। इनकी हर रचना अपने आप में नूतन, अनोखी और आकर्षक होती है। जम्बूद्वीप रचना निर्माण, ज्ञानज्योति भ्रमण, कमल मंदिर रचना एवं ह्रीं प्रतिमा की रचना इसका जीता-जागता उदाहरण है। पूज्य माताजी न सरल भक्ति रस में भावविभोर कर देने वाली पूजाएं बनाकर जनमानस को जैन दर्शन का ज्ञान दिया है।
अब से १५ साल पहले श्री सिद्धचक्र मण्डल विधान ही सुनने में व करने में आता था, परन्तु आज माताजी के रचित विधानों में से कोई न कोई विधान, पूजा भारत के किसी न किसी नगर में प्रतिदिन हो रहा होता है। पूज्य माताजी ने इन विधानों की पूजन व जयमालाओं के माध्यम से धर्म का गूढ़ से गूढ़ सार भी संगीत के द्वारा, सरल और मन को लुभाने वाली भाषा में जन-मानस को समझा दिया है। भक्ति में लीन होकर पूजा करने वालों को यह भान ही नहीं रहता कि वे किसी इन्द्रसभा में बैठे हैं या भगवान के साक्षात् समोशरण में बैठे हैं। छोटे-छोटे बालक व
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