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________________ १२८] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला बालिकायें तो क्या बड़ी उमर के स्त्री-पुरुष भी नाचने व गाने लगते हैं। ___ अन्त में मैं पूज्य माताजी के श्री चरणों में पुष्पांजलि समर्पित करता हुआ यह भावना भाता हूँ कि दर्शन, ज्ञान, चारित्र की मूर्ति गणिनी आर्यिका श्री "जिएं हजारों साल, साल के दिन हों पचास हजार ।" मैं पूज्य माताजी की भावी योजनाओं को पूरा करने में सक्षम हो सकू, यही आशीर्वाद एवं शक्ति चाहता हूँ। शत-शत नमन, कोटि-कोटि वंदन । विनयांजलि - प्रेमचंद जैन, अहिंसा मंदिर, दरियागंज, नई दिल्ली यह जानकर महती प्रसन्नता हुई कि गणिनी आर्यिकारत्न परम पूज्य बाल ब्रह्मचारिणी १०५ ज्ञानमती माताजी को अभिवंदन ग्रन्थ भेंट किया जा रहा है, यह कार्य तो बहुत समय पहले हो जाना चाहिए था। पूज्य माताजी का समस्त जीवन तप व संयम व ज्ञान आराधना में बीता है। उन्होंने समाज को जो दिया है उसकी कोई मिशाल नहीं। वे ज्ञान व चरित्र की खान हैं। उन्होंने स्वयं दीक्षा लेकर अनेकों को सन्मार्ग पर लगाया। अपनी माताजी (बाद में आर्यिका रत्नमतीजी) व बहनें अब आर्यिका अभयमतीजी व चन्दनामतीजी को दीक्षाएं दिलाई एवं भाई रवीन्द्र कुमारजी को ब्रह्मचर्य व्रत। क्षुल्लक मोतीसागरजी (पूर्व में मोतीचन्दजी) को दीक्षा दिलाकर जम्बूद्वीप का पीठाधीश बनवा दिया। सारे परिवार व अन्य लोगों को उद्धार के मार्ग पर लगाया। जम्बूद्वीप की रचना कराकर हस्तिनापुर का भी उद्धार कर दिया, यह अद्भुत कार्य हुआ। अस्वस्थ रहते हुए भी आपने अष्टसहस्री, समयसार, नियमसार, मूलाचार व धार्मिक ग्रंथों का सरल भाषा में रूपांतर कर जनमानस के लिए सुलभ कराया। अनेक ग्रन्थों व पूजाओं-विधानों की रचना की। आपके विषय में मुझ जैसे जघन्य प्राणी के लिए लिखना तो सूर्य को दीपक दिखाने के समान है। आप शतायु हों और हम सभी को मार्गदर्शन देती रहें यही भावना है। वात्सल्य भावना एवं मृदु स्वभाव की प्रतिमूर्ति - कैलाशचन्द जैन, करोलबाग, नई दिल्ली कोषाध्यक्ष : दि० जैन त्रिलोक शोध संस्थान परम पूज्य आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी के संबंध में यदि हम लिखने बैठ जायें तो लेखनी सूख सकती है, किन्तु उनके गुणों का वर्णन नहीं हो सकता। उनके अथाह गुणों का वर्णन करना "सूर्य को दीपक दिखाने" की कहावत को ही चरितार्थ करना होगा। मुझे पूज्य माताजी के दर्शन करने का सौभाग्य प्रथम बार सन् १९७२ में मिला, जबकि माताजी अपने संघ के साथ पहाड़ी धीरज, दिल्ली में चातुर्मास स्थापन कर विराजमान थी तथा एक दिन वे करोलबाग श्री दिगंबर जैन मन्दिरजी में दर्शनार्थ पधारी। उनकी आकर्षण शक्ति और प्रेरणा ने मुझे विवश कर दिया तथा वापसी में मैं उनका कमंडलु उठाकर पहाड़ी धीरज, दिल्ली तक छोड़ने गया। अपनी वात्सल्य भावना एवं मृदु स्वभाव से ओत-प्रोत होने के कारण उन्होंने मुझे पुनः दर्शनार्थ आने के लिए प्रेरित किया। उस दिन को चिर स्मरणीय रखते हुए आज तक भी उनका परम सानिध्य प्राप्त हो रहा है, उस समय मेरे अन्दर भी यही भावना जाग्रत हुई कि इस उत्कृष्ठ पद को पाने वाली माताजी मेरे मन-मानस में विराजमान होकर इस उत्कृष्ट पद को पाने के लिए मुझे प्रेरित करती रहें। उनकी सद्प्रेरणा से प्रेरित होकर सन् १९७२ में श्री दिगंबर जैन त्रिलोक शोध संस्थान का गठन किया गया, जिसके माध्यम से आज तक विभिन्न आयोजन किये गये तथा भविष्य में भी आयोजित होते रहेंगे। पूज्य माताजी की प्रखर बुद्धि एवं लेखन प्रक्रिया इसकी परिचायक है कि लगभग १५० ग्रन्थों की संरचना कर एक कीर्तिमान स्थापित किया है। ये इस युग की प्रथम महिला मनीषी हैं जिन्होंने इतनी बड़ी संख्या में ग्रन्थों की रचना हिंदी पद्यावली में कर जैन जगत् में धूम मचा दी है। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012075
Book TitleAryikaratna Gyanmati Abhivandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Jain
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1992
Total Pages822
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size26 MB
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