SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 520
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४५६] पूजा नं. ४८ मंदरमेरुपूजा, जयमाला, पद्य नं. ७, पृ. ४३३ का उद्धरणः गुणगण वे वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला मणिमाला, परमरसाला, जो भविजन निजकण्ठ शीघ्र शमनकर, मुक्तिरमा को स्वयं इस विधान के कतिपय रम्य पद्यों का उद्धरण - मंगलाचरण का आठवां पद्यः भवदावानल यत्ताछन्द में निबद्ध इस पद्य में रूपकालंकार, परिकरालंकार की संसृष्टि से अन्यसामग्री के सहयोगपूर्वक शान्तरस की वर्षा हो रही है। अनुप्रास नाम अलंकार भी शब्दों में अपना चमत्कार प्रदर्शित कर रहा है 1 (३) तीनलोक विधान का समीक्षात्मक परिशीलनः / इस विधान का प्रथम नाम 'तीनलोक विधान' प्रसिद्ध है, इसका द्वितीय अभिधान 'मध्यम तीन लोक विधान' निश्चित किया गया। यह विषय तो पौराणिक, सैद्धान्तिक और वैज्ञानिक दृष्टि से प्रसिद्ध है कि यह लोक अत्यन्त विशाल है, परिमाण से ३४३ राजू घनाकार है इतने विशाल लोक का श्रुतज्ञान से अवलोकन पर उसके चैत्य एवं चैत्यालयों का वर्णन, पूजन, भजन वृहत्-मध्यम-लघु रूप में कर देना अर्थात् तीन विधानों का सृजन करना यह विधात्री माताजी के ज्ञान की विलक्षण प्रतिभा समझना महान् आचर्य का विषय है, यह तो दीपक के द्वारा सूर्य की पूजा करना है। वी.नि.सं. २५१३ में इसकी रचना पूर्ण होकर २५१४ में यह प्रकाशित हो गया। इस विधान में कुल ६४ पूजाएं, ८८४ अर्घ्य एवं १४० पूर्णार्घ्य लोकत्रय के चैत्य- चैत्यालयों का अर्चन करते हैं, ६५ जयमालाएं परमात्मा के श्रेष्ठगुणों का चिन्तन करने में संलग्न हैं। इस विधान का द्रव्य शरीर ३५ प्रकार के छन्दों में निबद्ध २४४८ पद्म प्रमाण है, जो पद्य संगीत की रम्य स्वरलहरी लहराते हुए जनता द्वारा गेय-शेव एवं ध्येय है, नियमतः पद्य भक्तभव्यों के स्वान्तसरोज को प्रफुल्लित करते हैं। मैं यही परोक्ष भावपूर्वक कर जोड़ शीश नावूं वन्दू, जिनमन्दिर जिनप्रतिमाओं को मैं वन्दूं कोटि कोटि वन्दूं । जिनवर की भक्तीगंगा में अवगाहन कर मल धो डालूं, निज आत्मसुधारस को पीकर चिन्मय चिन्तामणि को पालूं ॥ शंभु छन्द में निबद्ध इस पद्य में विधानविधात्री माताजी ने ग्रन्थरचना का कारण और कारण का कारण भी स्पष्ट लिख दिया है। अर्थात् प्रथम अन्तरंग कारण है अकृत्रिम एवं कृत्रिम चैत्य चैत्यालयों का विशुद्धभावपूर्वक दर्शन-वन्दन-पूजन-नमन है। वीतराग परमात्मा की भक्तिगंगा में कर्ममल का प्रक्षालन शुद्धात्मसुधारस का पान और शुद्ध चैतन्य चिन्तामणि को प्राप्त करना । द्वितीय बहिरंग कारण ग्रन्थ की रचना कर प्राणियों का कल्याण करना। पूजा नं. १- णमोकार महामंत्रपूजा की जयमाला का ९वां पद्यः Jain Educationa International इस पद्म में कारणमाला एवं रूपकालंकार की संसृष्टि से और प्रसाद गुण, पांचलीरीति, सिद्धिलक्षण, भारतीवृत्ति इस काव्य की सामग्री से शान्तसुधारस का शीतल प्रवाह भक्तजनों को आनन्दित करता है। - इस मंत्र के प्रभाव श्वान देव हो गया, इस मंत्र से अनन्त का उद्धार हो गया। इस मंत्र की महिमा को कोई गा नहीं सके, इसमें अनन्तशक्ति पार पा नहीं सके ।। दीनबन्धु की चाल में निबद्ध इस पद्य में महामंत्र की महिमा का वर्णन किया गया है। उदात्तालंकार ने इसकी महिमा को उदात्त रमणीय बना दिया है। भारतीवृत्ति, वैदर्भीरीति कार्यलक्षण, प्रसादगुण के आलोक में शान्तरस की शीतक वृष्टि इस पद्य उद्यान में की गई है। पूजा नं. ६१; नव अनुदिश जिनालय पूजा; जयमाला पद्य-६ वां: धरें । करें ।। - । सोहं शुद्धहं सिद्धोह, चिन्मय चिन्तामणि रूपोह, नित्योहे ज्ञानस्वरुपोर्ट आनन्त्यचतुष्टय रूपोह मैं नित्य निरंजन परमात्मा का ध्यान करूं गुणगान करूं, सोहं सोहं रटते रटते, परमात्म अवस्था प्राप्त करूं ॥ For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012075
Book TitleAryikaratna Gyanmati Abhivandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Jain
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1992
Total Pages822
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy