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गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ
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जिस प्रकार लोकोक्तिरूप में विधाता ने जगत्त्रय की रचना कर तीन लोक में अपना अधिकार स्थापित कर लिया है उसी प्रकार विधान की विधात्री ने वृहत् तीन लोक विधान की रचना कर जगत् के विधान (राजनीतिशास्त्र अथवा पूजा विधानशास्त्र) में अपना अधिकार चिरस्थायी कर लिया है यह आश्चर्य है। माताजी ने वी.नि.सं. २५१३ में यह त्रिलोक विधान समाप्त कर स्वकीय मानवजीवन को उच्चश्रेणी में उज्जीवित किया है।
विधान की विशेषता के कतिपय उद्धरण इस प्रकार हैं
पूजाक्रमांक १-त्रैलोक्यपूजा के जल अर्पण करने का पद्यभर जावे पूरा त्रिभुवन भी, प्रभु इतना नीर पिया मैंने, फिर भी नहिं प्यास बुझी अब तक, इसलिये नीर से पूजूं मैं। त्रैलोक्य जिनालय जिनप्रतिमा कृत्रिम अकृत्रिम अगणित हैं,
अर्हन्त सिद्ध साधू आदिक, इन सब की पूजा शिवप्रद है।९॥ शुभ एवं भावसौन्दर्य से पूर्ण इस पद्य पर विचार किया जाये तो गंभीर अर्थ ज्ञात होता है - जैसे कोई रोगी रोगविनाशार्थ डाक्टर के पास जाता है, डाक्टर दवा देता है, दवा सेवन से जब लाभ नहीं, तब रोगी पुनः ऊंचे डाक्टर के पास जाता है और कहता है कि ७ दिनों में दवा से कोई लाभ नहीं। आप इससे ऊंची दवा दीजिये। डाक्टर ने ऊंची दवा दे दी। रोगी ने ऊंची दवा के सेवन से अपना रोगनाश किया और स्वस्थ हो गया। उसी प्रकार इस जगत् के प्राणी ने तृषारोग की दवा जल किसी डाक्दर से ली, जब रोगी ने बहुत जल पिया और प्यास शान्त नहीं हुई तो वह ऊंचे डाक्टर परमगुरु के पास गया और जल सामने रखकर कहा-गुरुदेव! इस जल से प्यास शान्त नहीं हुई, दूसरी कोई ऊची दवा कहिये, तब गुरुदेव ने समतारुपी जल दिया और उससे वह स्वस्थ हो गया। इसी प्रकार इस पद्य में भी यही भाव दर्शाया गया है।
शंभुछन्द से शोभित यह पद्य विशेषालंकार समाधिगुण वैदर्भी रीति, सिद्धलक्षण और भारतीवृत्ति से अनुप्राणित होकर भक्तिरस की सरिता को प्रवाहित कर रहा है। पूजा नं. ९१ की जयमाला का १४वां पद्य (पृ. ७९९) का भावसौन्दर्य
जिनभक्ती गंगा महानदी, सब कर्ममलों को धो देती, मुनिगण का मन पवित्र करके, तत्क्षण शिवसुख भी दे देती। सुरनर के लिये कामधेनु, सब इच्छित फल को फलती है,
मेरे भी ज्ञानमती सुख को पूरण में समरथ बनती है। भावसौन्दर्य-जिनेन्द्रभक्तिरूपी गंगानदी, द्रव्यकर्म, भावकर्म नोकर्मरूपी मल का प्रक्षालन करती है। आचार्य, उपाध्याय, मुनि एवं आर्यिकाओं के मन को पवित्र कर सहसा मुक्तिसुख को प्रदान करती है, देवों और मानवों के लिये इच्छित श्रेष्ठफल को प्रदान करती है और ज्ञानमती आर्यिका के क्षायोपशमिक ज्ञान एवं सुख को क्षायिक (सम्पूर्ण) सुख एवं ज्ञान को करने में समर्थ है। इससे सिद्ध होता है कि वास्तविक जिनेन्द्रभक्ति से विश्व की भव्य आत्मा ही परमात्मपद को प्राप्त करती है।
इस पद्य में रूपकालंकार, तद्गुणालंकार के प्रभाव से शान्तरस की शीतलता प्रवाहित होती है। उदारता गुण, पांचालीरीति सिद्धि लक्षण, भारती वृत्ति की पुट से शान्तरस का फब्बारा धुंआधार चल रहा है। पूजा नं. ८७ ग्रह जिनालय पूजा पृष्ठ ७६१ का ७वां पद्य
जिनभक्ति अकेली ही जन के, सब ग्रह अनूकूल बना देती, जिनभक्ति अकेली ही जन को, दुर्गति से शीघ्र बचा लेती। जिनभक्ति ओकली ही जन के, तीर्थंकर आदि पुण्य पूरे,
जिनभक्ति अकेली ही जन को शिवसुख देकर भवदुख चूरे ।। शंभुछन्द में विरचित इस पद्य का यह चमत्कार पूर्ण अर्थ द्योतित होता है कि कारण एकमात्र जिनभक्ति है और उसके कार्य चार हैं (१) ग्रहों की शान्ति (२) दुर्गति से सुरक्षा (३) तीर्थंकर चक्रवर्ती आदि उच्च पद प्राप्ति, (४) भक्तिपद की सम्प्राप्ति । विशेष यह की जिनेन्द्र भक्ति इतना प्रबल एक कारण है कि उससे अनेक महत्त्वपूर्ण कार्य सिद्ध होते हैं। द्वितीय चमत्कार यह प्राप्त होता है कि जिन भक्ति रूप श्रेष्ठ कारण किसी स्थान पर विद्यमान है और कार्य किन्हीं अन्य स्थानों पर होते हैं यह चमत्कार साहित्य के असंगति अलंकार से अलंकृत होता है। इस विशिष्ट अर्थ से भक्तिरस और शान्तरस का समन्वय सिद्ध होता है। काव्य की अन्यसामग्री का भी इसमें समावेश हो जाता है।
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