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________________ ४५४] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला इस पद्य में शंभुछन्द स्वरलहरी व्यक्त कर रहा है। रूपकालंकार से शब्दों में विप्रलंभश्रंगार, भावों में विरागता झलकती है। उत्प्रेक्षालंकार से जिनमन्दिर कल्याण के भवन और मानवों को पुष्पांकुर सिंचन के उद्यान हैं काव्य का कान्तिगुण, पांचालीरीति, काव्य का युक्ति चिह्न और भारतीवृत्ति इस सामग्री ने इस पद्य को भक्तिरस का शीतल सरोवर रूप में लवालव भर दिया है। इसी कारण से विधानरचयित्री माताजी ने श्रद्धापूर्वक रत्नमयनिधि को प्राप्त करने की कामना की है। पूजा नं. २६ में रुचकगिरि के जिनालयों का अर्चन है इसके प्रत्येक अर्घ्य प्रकरण में प्रथम पद्य का अनुभव करें जो मुक्तिकन्या परिणयन हित, अतुल मण्डप सम दिखें, जिनवरजिनालय सासता, मुनिगण जहां निजरस चखें। जल गन्ध आदिक अर्घ लेकर, पूजते निधियां मिलें, मनकामना सब पूर्ण होकर, हृदय की कलियां खिलें। पद्य में गीताछन्द के द्वारा जिनवर के गीतों की लहर उठ रही है। यहां पर रूपकालंकार ने मुक्ति को कन्या का रूप दे दिया है तथा उपमालकार ने, मुक्तिकन्या के साथ विवाह करने के लिये शाश्वत जिनालयों को विशाल मण्डप के समान कल्पित कर दिया है यहां शब्दों में कल्पित श्रृंगार और भावों में वैराग्य की भावना झलक रही है इसलिये तपस्वी इन मन्दिरों में आत्मरस का प्याला पीते हैं। काव्य का उदारता गुण, पांचाली रीति, काव्य का सिद्धिगुण, भारतीवृत्ति ये सभी प्रत्यंग अपने-अपने प्रभाव से भक्तिरस गंगा को तंरगित कर रहे हैं। उसमें भक्तजनों के स्वान्तकमल की कलियां खिल जाती हैं। इसी विधान की पूजा नं. २८ की जयमाला के १२वें पद्य का भाव सौन्दर्य भक्तजनों को सम्बोधित करता है धन धन्य है यह शुभ घड़ी, धन धन्य जीवन सार्थ है, जिन अर्चना का शुभ समय आया उदय में आज है। जिनवन्दना से आज मेरे चित्त की कलियां खिली मैं ज्ञानमति विकसित करूं अब रतनत्रय निधियां मिलीं। इस सुन्दर पथ के गीता छन्द ने जिनेन्द्र अर्चना के गीत गाये हैं। उल्लेखालंकार ने विविध उल्लेखों के द्वारा भक्तिरस के झरनों को प्रवाहित किया है। प्रसादगुण ने प्रसन्नता को वृद्धिंगत किया है, वैदर्भीरीति सिद्ध लक्षण ने सरलता को द्योतित कर दिया है, भारतीवृत्ति ने वाणी को हर्षप्रद बना दिया है, जिनेन्द्रवन्दना का इस पद्य से सिद्ध होता है। इस विधान की विशेषता यह भी ज्ञातव्य है कि गणिनी माताजी की विज्ञानमय मति ने प्रत्येक पूजा के अन्त में पूज्यपरमात्मा के प्रसाद से गुणों की प्राप्ति हेतु आशीर्वादपट्टा, विश्वप्राणियों के दुःखों की शान्ति के लिये शान्तिधारापद्य और विश्वप्राणियों के कल्याण के लिये पुष्पांजलि पद्यों का निर्माण किया है। (२) सर्वतोभद्र विधान का अनुशीलन श्री पूज्य ज्ञानमती माताजी द्वारा प्रणीत इस द्वितीय विधान का नाम 'सर्वतोभद्रविधान' प्रसिद्ध है, इसका द्वितीयनामधेयं वृहत् तीन लोकविधान' पुनः पुनः स्मरणीय है। प्रथम नाम इस दृष्टि से सार्थक सिद्ध होता है कि यह विधान विश्व के अखिल प्राणियों का सर्वतोमुखी कल्याण करने वाला है। द्वितीयनामधेय इस कारण सार्थक है कि इसमें तीनलोकों के सम्पूर्ण अकृत्रिम एवं कृत्रिम चैत्यालयों का विस्तृत पूजन लिखा गया है। इस विधान के अनुशीलन से ऐसा प्रतीत होता है कि पूज्य माताजी ने स्वकीय श्रुतज्ञान के द्वारा तीनों लोकों के सम्पूर्ण चैत्यालयों के भावपूर्वक दर्शन कर लिये हैं अतएव आप लोकत्रय के सम्पूर्ण चैत्यालयों के विस्तृत वर्णन, दर्शन, पूजन एवं लेखन करने में सक्षम हो सकी हैं, यह वृत्त दुर्लभ और स्मरणीय है। शास्त्रों में इस विधान का एक नाम 'चतुर्मुखयज्ञ' भी प्रसिद्ध है इसको महामुकुट नरपतियों द्वारा बड़ी योजना एवं समारोह के साथ किया जाता है। इस महाविधान के प्रारंभ में हिन्दीमंगलाचरण, संस्कृतस्वस्तिस्तव, मंगलस्तव (प्राकृत) सामायिकदण्डक, धोस्सामिस्तव और संस्कृतचैत्यभक्ति का पाठ दर्शाया गया है। इस विधान में सम्पूर्ण १०१ पूजाएं, उनमें १८११ अर्घ्य और १९० पूर्णार्ध्य-इस सर्व सामग्री के द्वारा तीनलोकों के सम्पूर्ण ८५६९७४८१ अकृत्रिम तैत्यालयों का अर्चन किया गया है। ८९७ पृष्ठों में समाप्त हुए इस महाविधान में ३७ प्रकार के छन्दों में विरचित ४२३० सुन्दर पद्य त्रिलोक के चैत्र एवं चैत्यालयों की महत्ता एवं पूज्यता को घोषित कर अन्तिम परमात्मपद की प्राप्तिरूप फल को दर्शाते हैं। इस महा पूजा में सविधि प्रयुक्त ८ प्रहाध्वजाएं एवं १०८ लघुध्वजाएं अमूल्य सिद्धान्तों को, समर्पित १०८ स्वस्तिक विश्वकल्याण को घोषित करते हैं। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012075
Book TitleAryikaratna Gyanmati Abhivandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Jain
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1992
Total Pages822
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size26 MB
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