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________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ का सृजन कर भारतीय साहित्य को समृद्ध किया गया है ईसा की २०वीं तथा विक्रम की २१वीं शती में अपनी त्याग-तपस्या एवं प्रतिभा द्वारा, संस्कृत-हिन्दी भाषा में धार्मिक एवं पूजासाहित्य का सृजन कर आचार्यपरम्परागत पूर्व साहित्य को आर्यिकारत्न गणिनी श्री १०५ ज्ञानमती माताजी ने विकसित और वृद्धिंगत किया है। आपने पूजा-विधानसाहित्य के अनेकों प्रन्थों की रचनाकर वर्तमान में पूजासाहित्य एवं पूजाकर्म को भारतीय जैन समाज के प्रांगण में रचनात्मकरूप में प्रस्तुत किया है। अर्थिकारल द्वारा विरचित पूजा प्रन्थों में हमारे समक्ष मात्र तीन ग्रन्थ है (१) त्रलोक्यविधान, (२) सर्वतोभद्रविधान, (३) तीनलोकविधान (१) त्रैलोक्यविधान - इस ग्रन्थ को "लघुत्रैलोक्यविधान" भी कह सकते हैं कारण कि इसमें मुख्य रूप से त्रिलोक के अकृत्रिम जिनचैत्य एवं चैत्यालयों का अर्चन है तथा संक्षेप में कृत्रिम जिनचैत्य चैत्यालयों की अर्चा लिखित है अतः इस प्रन्थ का सार्थक नाम रखा गया है। भक्तिपूर्णभावों से विरचित इस विधान में ३२ पूजा, ३३ जयमालाएं ५६७ अर्घ्य, ७४ पूर्णार्घ्य और ३० प्रकार के छन्दों के प्रयोग किये गये हैं। जिनके माध्यम से इस ग्रन्थ में प्रायः १५५१ पद्मों की रचना कर विधान के शाब्दिक शरीर को परिपुष्ट किया गया है। श्री गौतमस्वामीकृत चैत्यभक्ति और स्वरचित मंगलाष्टक संस्कृत में होने से इसकी विशेष शोभा द्योतित होती है। पद्मों में छन्द, रस, अलंकार, रीति, गुण और काव्य के लक्षणों के यथायोग्य अनुप्रयोगों से इस ग्रन्थ की कविताकामिनी ने भक्तजनों के हृदयों को आकर्षित कर लिया है। इन छन्दों की एक विशेषता यह भी ज्ञातव्य है कि हारमोनियम, वेला, सितार आदि वाद्यों के साथ इस विधान के पद्यों की स्वरलहरी जब सभा के मध्य ध्वनित होती है उस समय भक्ति से आह्लादित होकर इन्द्र-इन्द्राणी और भक्तजन नृत्य करने में तन्मय हो जाते हैं। यही इन छन्दों की रमणीयता है। विधान के कतिपय विशिष्ट छन्दों के उदाहरणः गंगानदी का नौर निर्मल बाह्यमल धोवे सदा, अन्तरमलों के छालने को नीर से पूजूं सदा। नवदेवताओं की सदा जो भक्ति से अर्चा करें सब सिद्धि नवनिधि रिद्धिमंगल पाय शिवकान्ता वरें ॥ नवदेवतापूजन में जल अर्पण करने का यह पद्य नरेन्द्रछन्द में रचित है, इसमें भक्तिरस, रूपकालंकार, अनुप्रास, प्रसादगुण, कार्यलक्षण और वैदर्भी रीति के प्रयोग से यह पद्य आनन्द की वर्षा कर रहा है Jain Educationa International जो भव्य श्रद्धा भक्ति से त्रलोक्यजिन पूजा करें, सब रोग शोक विनाशकर, भवसिन्धुजल सूखा करें। चिन्तामणी चिन्मूर्ति को वे स्वयं में प्रकटित करें, 'सुज्ञानमति' रविकिरण से, त्रिभुवनकमल विकसित करें। ४५३ त्रैलोक्यजिनालय पूजा का यह आशीर्वाद पद्य है। गौताछन्द में रचित यह पद्य रूपकालंकार, उत्प्रेक्षालंकार की पुट से तथा अर्थव्यक्तिगुण, पांचाली रीति शोभालक्षण और भारतीवृत्ति के उपयोग से शान्तरस का वर्षण कर मानवसमाज को आनन्दित कर रहा है। आगे मध्यलोक जिनालयपूजा की जयमाला का चतुर्थ पद्य देखिये स्वात्मानंदैक परम अमृत - झरने से झरते समरस को, जो पीते रहते ध्यानी मुनि, वे भी उत्कण्ठित दर्शन को । ये ध्यानधुरन्धर ध्यानमूर्ति यतियों को ध्यान सिखाती है, भव्यों को अतिशय पुण्यमयी, अनवधि पीयूष पिलाती हैं । शभुंछन्द में शोधित यह विशाल पद्यरूपकालंकार एवं उत्प्रेक्षा हेतु अलंकारों से शोभित होता हुआ प्रसादगुण, पांचालोरोति, कार्यलक्षण एवं भारतीवृत्ति का अनुकरण कर शान्तरस का सरोवर ही हो रहा है। इसमें अनुप्रास शब्दालंकार भी अपनी छटा प्रदर्शित कर रहा है। पूजा नं. १५ के अन्तर्गत जयमाला के ७वें पद्य का चमत्कार भक्तजनों को आनन्दविभोर कर रहा है ये जिनमन्दिर शिवललना के श्रंगार विलास सदन माने, भविजन हेतु कल्याण भवन, पुण्यांकुर सिंचन वन माने । इनमें हैं इक सौ आठ कहीं, जिनप्रतिमा रतनमयी जानो, मुझ ज्ञानमती को रत्नमय-सम्पति देवें यह सरधानो || ७ || For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012075
Book TitleAryikaratna Gyanmati Abhivandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Jain
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1992
Total Pages822
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size26 MB
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