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वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला
समस्त प्राचीन वाङ्मय-वैदिक जैन एवं बौद्धग्रन्थों में तथा अभिलेखों में भी ब्राह्मण और श्रमण दोनों सम्प्रदायों के स्पष्ट उल्लेख उपलब्ध होते हैं।
उक्त कथनों के अतिरिक्त अन्य अनेक प्राचीन उद्धरणों से भी यह सिद्ध होता है कि वैदिक जैन और बौद्धपुराणों के आधार से तीर्थंकर ऋषभदेव की मान्यता अति प्राचीन काल से ही लोक में प्रवाहित हो रही है। इससे प्रमाणित होता है कि प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव से ही पूजासाहित्य का मूल-उद्भव या मूल प्रवर्तन हुआ है। तत्पश्चात् ऋषभदेव से लेकर अन्तिम तीर्थंकर भगवान् महावीर तक पूजासाहित्य की विकसित परम्परा प्रवाहित होती रही है।
(डॉ० नेमिचन्द्रः तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा भा.२) २४वें तीर्थंकर भ० महावीर का प्रमाणित अस्तित्व:
२४वे तीर्थंकर भ० महावीर का अस्तित्व इतिहास, पुरातत्त्व, शिलालेख, मूर्तिलेख, स्तम्भलेख और पुराणों से सिद्ध होता है:-तथाहि-कंकाली टीला मथुरा उ.प्र. से भ० महावीर की एक मूर्ति, कनिष्क नृप के राज्यकाल ईसापूर्व ५३ की प्राप्त हुई है, वह सर्वप्राचीन मूर्तियों में से एक मूर्ति है।
राजगृह नगर (बिहार) के मणियार मठ वाले शिलालेख में विपुलाचल और उस पर राजा श्रेणिक की अवस्थिति निदर्शित है। कारण कि भ० महावीर के अनन्यतम भक्त मगधदेश के महाराजा श्रेणिक थे और भ० महावीर का सर्वप्रथम उपदेश राजगृह के विपुलाचल पर स्थित समवशरण में हुआ था। जिस मूर्ति पर यह शिलालेख अभिलिखित है उसका पादपीठ का अंश ही शेष है। इस पर कुशाणकालीन (ईसा प्र० शती) लिपि में यह लेख अंकित है। “पर्वतो विपुल-राजा श्रेणिक"(जैनशिलालेख सं.भा. २: शिलालेख नं. ५: पृ० १२; बम्बई)।
भ० महावीर से पूर्व मध्यएशिया के नगरों में जैन धर्म का प्रसार था, यूनान के इतिहास में अहिंसाधर्म का उल्लेख प्राप्त होता है। यूनान के दार्शनिक विद्वान् पैथेगोरस भ० महावीर के समकालीन थे। वे पुनर्जन्म तथा कर्मसिद्धान्त को मान्य करते थे। इस विषय में एक उद्धरण यह है
पूरी संभावना है कि भ० महावीर से पहिले मध्यएशिया के स्पिया, अमन, समरकन्द, वलाख आदि नगरों में जैनधर्म फैला था। ई० पूर्व छठी शताब्दी में यूनान के इतिहासकार हेरोडोनस ने अपने इतिहास में एक ऐसे भारतीय धर्म का उल्लेख किया है जिसमें मांस वर्जित था, जिसके अनुयायी पूर्ण शाकाहारी थे। ५८० ईसा पूर्व० उत्पन्न दार्शनिक पैथेगोरस, जो भ० महावीर व महात्मा बुद्ध के समकालीन थे, जीवात्मा के पुनर्जन्म व आवागमन तथा कर्म सिद्धान्त में विश्वास करते थे। जीवहिंसा व मांसाहार के त्यागने का उपदेश देते थे। कुछ वनस्पतियों को दार्शनिक दृष्टि से अभक्ष्य मानते थे।"
(जैन धर्मः सं. रतनलाल जैन अधिवक्ताः प्र. परिषद् पब्लिशिंग हाऊस देहलीः पृ० १९४-९५, सन् १९७४)
भ. महावीर की शिष्यपरम्परा में उद्भूत गुणभद्राचार्यप्रणीत त्रिषष्टिलक्षणमहापुराणसंग्रह में तथा जिनसेनाचार्य प्रणीत संस्कृत आदिपुराण आदि पुराणों में आदिनाथ से लेकर महावीर तीर्थकर पर्यन्त २४ तीर्थंकरों का जीवनचरित्र जगत्प्रसिद्ध है। इन तीर्थंकरों के माध्यम से ही न केवल जैन पूजा साहित्य का, अपितु अहिंसा, अनेकान्तवाद, अपरिग्रहवाद, अध्यात्मवाद आदि विश्वहितकारी सिद्धान्तों का उद्भव हुआ है। पूजा साहित्य की विकास परम्परा. पूजासाहित्य के उद्भव के पश्चात् तीर्थंकरों की गणधरं प्रतिगणधर प्रशिष्य, शिष्य परम्परा के द्वारा समयानुसार पूजासाहित्य का विकास होता गया। अन्तिम तीर्थंकर भ० महावीर की गणधर-प्रतिगणधर-श्रुतधर-सारस्वत-प्रशिष्य और शिष्य परम्परा के द्वारा अन्य सिद्धान्तों के साथ ही जैन पूजासाहित्य का क्रमशः विकास होता आया है। विकास में शिष्यपरम्परा का क्रम, भ० महावीर से लेकर वर्तमान काल तक इस प्रकार है:
भ० महावीर के निर्वाण (कार्तिककृष्णा अमावस्या-ईसापूर्व ५२७ वर्ष) के पश्चात् ३ केवल ज्ञानी महापुरुष, ५ श्रुतज्ञानी, ११ दश पूर्वज्ञानधारी आचार्य, ग्यारह अंगज्ञानधारी आचार्य-५, अनेक अंग ज्ञानधारी आचार्य-४, आचारांगज्ञानधारी आचार्य-५, श्रुतज्ञान के अन्तर्गत पूजासाहित्य का प्रसार करते रहे। तदनन्तर विक्रमपूर्व प्रथम शती से लेकर १३वीं शती तक आचार्य श्रीधरसेन से लेकर महाकवि श्री हस्तिमल्ल तक १८ आचार्यों ने यथासमय संस्कृत-प्राकृतसाहित्य, पौराणिक साहित्य, पूजासहित्य, दर्शन और आध्यात्मिक साहित्य की रचना कर विश्व में श्रुतज्ञान की धारा को प्रवाहित किया। जो ज्ञान का साहित्य प्रायः वर्तमान में उपलब्ध है।
तत्पश्चात् २८ संस्कृत साहित्यकार विक्रम की ८वीं शती से १७वीं शती तक संस्कृतसाहित्य के अन्तर्गत पूजा साहित्य को और वि० की षष्ठशती से १७ शती तक प्राकृत तथा अपभ्रंशभाषाविज्ञ अपनी प्रतिभा द्वारा प्राकृत-अपभ्रंश साहित्य एवं पूजासाहित्य की गंगा को प्रवाहित करते रहे। इन साहित्यकारों की संख्या ५१ प्रसिद्ध है। इसके पश्चात् १८वीं शती से लेकर २०वीं शती तक कविवर वृन्दावन, महाकवि द्यानत राय से लेकर कांववर रघुसुत कुंजीलाल तक अनेकों कवियों द्वारा ब्रज भाषा, ढूंठारीभाषा, बुन्देली भाषा, मराठी, हिन्दुस्तानी, हिन्दी आदि भाषाओं में धार्मिक एवं पूजासाहित्य
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