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________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [४५७ यह पद्य शंभुछन्द में निबद्ध होकर भी शुद्धात्मा का अबद्धरूप से आख्यान करता है। आत्मा से परमात्मा बन जाने का यह सहज ही मार्ग दर्शाता है। स्वभावोक्ति अलंकार आत्मा को स्वभाव से ही अलंकृत करता है। समता और समाधिगुण शब्दार्थ चमत्कार है। लाटी या रीति शब्दों की क्लिष्टता को दर्शाती है। निरुक्त लक्षण शब्दों की निरुक्ति का कथन करती है और भारतीवृत्ति भारत में भारतीयों को शान्त एवं वीररस का सन्देश दे रही है। इन उद्धरणों से यह प्रतीत होता है कि माताजी की काव्य शक्ति प्रतिभासम्पन्न है। वस्तुतः वे विधान काव्य की विधात्री स्मरणीय हैं। प्रत्येक पूजा के अन्त में आशीर्वाद पद्य, पुष्पांजलि पद्य और शान्तिधारा पद्य सप्रयोजन कथित हैं। आप संस्कृत साहित्य की भी विदुषी होकर संस्कृतकाव्य का सृजन करती हैं। इस विधान में प्रारंभमंगलरूप में संस्कृत मंगलाष्टक स्तोत्र और चैत्यभक्ति का दर्शन आप ने कराया है। अन्य पूजा विधानों में भी आर्यिका जननी ने भाषाजननी में काव्यों एवं स्तोत्रों की रचना कर विद्वानों का मानस प्रमुदित किया है। ___ तीनों विधानों के अन्त में कु० माधुरी शास्त्री द्वारा (वर्तमान में श्री आ. चंदनामती) आरती एवं भजन के माध्यम से स्वकीय मधुर भक्तिभाव दर्शाया गया है। ऋषिमण्डल विधान, शान्ति विधान समीक्षक - प्रो० निहालचन्द जैन, प्राचार्य, बीना (म०प्र०) जिनेन्द्र भक्ति मुक्ति सोपान का प्रथम मांगलिक चरण है। जिस प्रकार मयूर के आगमन से चन्दन के R EPEATE वृक्षों से लिपटे विषधरों के निविड़ बंधन स्वयमेव ढीले पड़ने लगते हैं उसी प्रकार जिनेन्द्र भगवान की भक्ति दिना विधानजाविधान से आत्मा को कसे पाप और असाता रूप कर्मों के विषधर अपने आप निर्बन्ध होने लगते हैं। जिनेन्द्र भक्ति का मूल आधार 'देवशास्त्र गुरु' की पूजन का विधान श्रावकों के लिए है। देवपूजन के अन्तर्गत इन्द्रध्वज, सिद्धचक्र शान्ति मण्डल और ऋषिमण्डल आदि विधान है, जो नैमित्तिक पूजन के रूप में प्रत्येक श्रावक को करणीय हैं तथा इनके आराधन से आत्मा में विशुद्ध परिणाम उत्पन्न होते हैं। गणिनी आर्यिका ज्ञानमती माताजी ने सर्वप्रथम इन्द्रध्वज मण्डल विधान की सरल बोधगम्य हिन्दी भाषा . में रचनाकर इसकी गुणवत्ता को सर्वजनशान्तिकराय व मंगल भूत बनाकर देश के दिग्दिगन्त में इसकी सुरभि विकीर्ण की है। प्रस्तुत समीक्षात्मक ग्रन्थ - "ऋषिमण्डल पूजा विधान", "शान्तिनाथ पूजा विधान" - इन्द्रध्वज महामण्डलविधान कल्पद्रुम मण्डल विधान, तीस चौबीसी विधान और त्रैलोक्यमण्डल विधान की श्रृंखला की दो श्रेष्ठ कड़ियाँ हैं। इनका प्रणयनकर पूज्य माताजी ने मनोवाञ्छित कार्य की सिद्धि, आत्मशक्ति एवं सर्वोपद्रव विनाशन हेतु दो अमोघ अस्त्र श्रावकों के हाथ सौंप दिए हैं। ___ इन समीक्षा ग्रन्थों के प्रणयन में प्रेरणास्वरूप आर्यिका चन्दनामती माताजी रहीं । मूलतः ऋषिमण्डल पूजा विधान - श्री गुणनन्दि मुनीन्द्र विरचित है और श्री शान्ति विधान - श्री महाज्ञानी मुनि सकलकीर्ति के शिष्य ब्र. जिनदास के शिष्य ब्र. शान्तिदास विरचित संस्कृत भाषा में है। शताधिक आगम ग्रन्थों की प्रणेत्री-पू० आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी द्वारा उक्त 'पूजा विधान ग्रन्थों' का सरस एवं बोधगम्य हिन्दी पद्यानुवाद एवं भावानुवाद है जो एक उपादेय ग्रन्थ बन गया है। प्रथम समीक्ष्य ग्रन्थ - ऋषिमण्डल पूजा विधान का शुभारम्भ नवदेवता (अरिहंत सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, साधु, जिनधर्म, जिनागम, जिनचैत्य और जिनचैत्यालय) की पूजन से किया गया है जो गीता छंद में निबद्ध है। जिनागम में इन नवदेवताओं की अचिंत्य महिमा वर्णित है और आत्म शान्ति विशुद्धि के लिए "ॐ ह्रीं अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधुजिनधर्म जिनागम जिनचैत्यचैत्यालयेभ्यो नमः" की १०८ बार जाप्य सर्वसिद्धदायक प्रमाण है। ऋषिमण्डल पूजा विधान में सर्वप्रथम ऋषिमण्डल मंत्र की स्थापना की जाती है जिसका मॉडल ग्रन्थ के प्रारम्भ में सचित्र दर्शाया गया है। यंत्रोद्धार विधि (यंत्र बनाने की सरल विधि) पृथक् टिप्पणी के रूप में वर्णित है। मॉडल के बीचोंबीच 'ह्रीं वर्ण लिखा जाता है जिसके बाहर वलयाकार क्रमशः ८, ८, १६ और २४ कोठे बने होते हैं। 'ह्रीं वर्ण को परिवेष्टित कर २४ लघु कोठे-चौबीस तीर्थंकरों के नाम के प्रथम अक्षर या पूरे नाम सहित होते हैं और अन्त के २४ कोठों में चौबीस देवताओं (२४ देवियों) के नाम 'ॐ ह्रीं' मंत्राक्षर के साथ तथा ८-८ कोठे क्रमशः देवनागरी वर्णमाला के सभी स्वर Jain Educationa international For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012075
Book TitleAryikaratna Gyanmati Abhivandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Jain
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1992
Total Pages822
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size26 MB
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