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सोलह कोठों में सोलह मंत्र
व्यंजन तथा ॐ ह्रीं के साथ अर्हदभ्यो सिद्धेभ्यो आचायेभ्यो पाठकेभ्यो सर्वसाधुभ्यो तत्त्वदृष्टिभ्यो, सम्यग्ज्ञानेभ्यो तथा सम्यक् चारित्रेभ्यो नमः लिखा जाता है। चार प्रकार के इन्द्रों के लिए चार प्रकार के अवधिज्ञान के लिए और आठ ऋद्धियों के लिए नमस्कार रूप हैं । इसके बाद संस्कृत में ऋषिमण्डल स्तोत्र अस्सी श्लोकों में वर्णित है। वस्तुतः यह स्तोत्र ग्रन्थ का हार्द है जिसमें ऋषिमण्डल का आध्यात्मिक रहस्य एवं पूजा का फल वर्णित है। इसका आराधन ऐहलौकिक एवं पारलौकिक सुखों के साथ इष्ट मनोरथ की प्राप्ति एवं कार्यसिद्धिदायक है।
ग्रन्थ में आगे पाँच पूजाओं का वर्णन है। ये पूजाएं चौबीस कोठों चौबीस तीर्थंकर पूजा आठ कोठे में अष्टबीजाक्षर पूजा, पुनः आठ कोठे अर्हन्तादि की पूजा, सोलह कोठे में भावनेन्द्रदि पूजा और अन्तिम पांचवीं पूजा २४ देवताओं की पूजा है जो गीता छंद, रोला छंद, नरेन्द्र छंद शंभुचंद और कुसुमलता छंदों में वर्णित है।
वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला
उक्त वर्णित छन्दों में निखरकर उद्वेलित हुई है।
पू० आर्यिकारत्न माताजी की कवित्व प्रतिभा एवं धारा प्रवाह समरसता चौबीस तीर्थंकरों की पूजा में प्रत्येक तीर्थंकर के लिए शंभु छंद में काव्य संरचना पू० ० माताजी के कविहृदय की दर्पणवत् निर्मलाछवि प्रस्तुत करती है। भाषा सधी हुई अलंकारों की छटा से युक्त प्रवाहमयी है भावों की उत्कर्षता में ये पद तीर्थकरों की स्तुतिरूप ही हैं जो विधानकर्ता को भावविभोर किए बिना नहीं रह सकता।
इसी प्रकार रोला छंद में २४ देवियों के गुणगान कम से कम शब्दों में अभिव्यक्ति का आकाश प्रस्तुत करता है मानो गागर में सागर उड़ेल दिया हो श्री ह्रीं धृति, लक्ष्मी, गौरी, सरस्वती, चंडिका, जया, अम्बिका, विजय आदि देवियों को उनके परिवार सहित यज्ञविधि में सम्मिलित होने के लिए एवं जिनेन्द्र पूजार्चन के लिए बुलाया गया है।
बानगी के लिए 'रौद्री देवी' का आमंत्रण देखिये
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सम्पूर्ण ऋषिमण्डल पूजा विधान में मंत्रों के जाप्य को प्रधानता दी गई है। ध्यान को साधने के लिए इन विविध मंत्रों की जाप्य आराधक के लिए बताई गयी है। अन्त में ऋषिमण्डल यंत्र का १०८ पार जाप्य स्थिर आसन व एकाग्रतापूर्वक करने का विधान किया गया है।
रोलाछन्दः आर्तरौद्र से दूर धर्म शुक्ल को करके। किया मोहमदचूर, मुक्ति लिया निज बल से। ऐसे जिन को नित्य श्रद्धा से भजती जो ।
रौद्री देवी नाम अर्थदान दूँ उसको।।
ग्रन्थ का समापन ऋषिमण्डल स्तोत्र का हिन्दी भावानुवाद से किया गया है, जो ४२ पदों में वर्णित है । ५० पृष्ठों का यह लघुकाय ग्रन्थ एक ही दिन में सम्पन्न किया जाने वाला पुण्यवर्द्धक विधान है।
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द्वितीय समीक्ष्य ग्रन्थ श्री शान्तिनाथ पूजा विधान जो ५० पृष्ठों का है तथा आत्मिक शान्ति प्रदाता एक दिन में सम्पन्न होने वाला वैभवपूर्ण विधान है। इसकी प्रशस्ति में आर्यिका ज्ञानमती माताजी ने काव्यग्रन्थ का सृजन श्री शान्तिनाथ की भक्ति का पुरुषार्थ कहा है जो वीर निर्वाण संवत् २५०६ की वैशाख शुक्ला दशमी को पूर्ण किया गया था।
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विधिवत् शान्ति विधान यह करो करावो भव्य ।
सर्व व्याधि दुःख दूरकर फल पावो नित नव्य ।।
अर्थात् यह विधान सर्वव्याधि रूप दुःखों को हरण करने वाला है ऐसा इसका फल बताया है।
श्री शान्तिनाथ की पूजन
सकल विघ्नों को हरण करने वाली, उपद्रवों को शान्त करने वाली तथा लक्ष्मी लाभ देने वाली है, ऐसी लौकिक
मान्यता
श्रद्धा है, परन्तु जो साधक शान्तिविधान के मंत्र का जाप्य अनुष्ठानपूर्वक करता है। उसके विघ्न स्वयमेव नष्ट होकर सर्व सम्पदायें प्राप्त होती हैं, साथ ही साधक का आत्म वैभव वृद्धिंगत होता है।
इस विधान में भी शान्ति यंत्र और झल्लरी यंत्र की स्थापना की जाती है। जिसका यंत्र ग्रन्थ के प्रारम्भ में दिया गया है।
पहिले अति संक्षेप में शान्तिनाथ विधान की आमुख कथा और विधान के मंत्रराज की अनुष्ठान विधि व झल्लरी यंत्रोद्धार का खुलासा किया है। श्री शान्ति विधान के प्रारम्भ में भगवान शान्तिनाथ की भक्ति रूप स्तवन संस्कृत के अष्टकों का शार्दूलविक्रीडित छंद में सुरुचि पूर्ण हिन्दी
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