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________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ पद्यानुवाद किया गया है। जो माताजी की काव्य सिद्धहस्त प्रतिभा का एक अनुपम उदाहरण है। निर्दोष काव्य विधान से सम्पूरित यह रचना अत्यन्त भावोद्रेक/श्रद्धामूलक है। उदाहरण के लिए लोकालोक निरन्तर व्यापी ज्ञानमूर्तिमय शान्ति विभो । नानारत्न जटित दण्डे युत रुचिर श्वेत छत्रत्रय है || तव चरणाम्बुज पूतगीत रव से झटरोग पलायित हैं। जैसे सिंह भयंकर गर्जन सुन वन हस्ती भगते हैं ।। श्री शान्तिनाथ मण्डल विधान के शान्ति यंत्र में चार वलय हैं जिनमें क्रमशः ८, १६, ३२ और ६४ कोठे हैं। क्रमशः प्रत्येक वलय में ८, १६, ३२ और ६४ अयों के लिए १२० पदों की रचना शंभुचंद, नरेन्द्र छंद, रोला छंद, चालछंद एवं गीता छन्द में निबद्ध है। प्रथम वलय के ८ कोठों में 'ड' भं मेरे घं झं से और खं इन आठ बीजाक्षरों के लिए अर्घ्य समर्पित हैं। द्वितीय वलय के १६ कोठों में अहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, सर्वसाधु रूप पंचपरमेष्ठी तथा सम्यक्दर्शन ज्ञान चारित्र रूप रत्नत्रय एवं ज्ञानवरणादिक अष्ट कार्यों के विपाक से उत्पन्न उपद्रव के निवारण के लिए श्री शान्तिनाथ भगवान के लिए अर्घ्य समर्पित किए गए हैं। तृतीय क्लब के ३२ कोठों में ३२ प्रकार के देवेन्द्रों को उनके परिवार सहित भगवान शान्तिनाथ के पादपद्म के अर्चन के लिए आहूत किये गए हैं। अन्तिम चतुर्थ वलय के ६४ कोठों में ६४ प्रकार के उपद्रवों के निवारण के लिए शान्तिनाथ भगवान को अर्घ्य समर्पित हैं। एक-एक उपद्रव के निवारण के लिए पद बहुत सटीक बन पड़े हैं। प्रत्येक पद की अन्तिम पंक्ति समान है, जबकि तीसरी पंक्ति थोड़े हेर-फेर साथ लगभग समान रूप से है। जैसे दुर्भिक्षोपद्रव निवारण के लिए रचित पद देखिए Jain Educationa International [४५९ गीताछन्द अतिवृष्टि या नहिं वृष्टि हो दुर्भिक्ष से जन हो दुःखी । खेती न हो नहिं जल मिले तब कष्ट हो सबको अती ॥ तुम पाद पंकज अर्चते यह सब उपद्रव शान्त हो । श्री शान्तिनाथ नमोऽस्तु तुमको नित्य बारम्बार हो । इन चार वलयों के १२० कोठों को अर्घ्य देने के बाद सम्पूर्ण जयमाला ९ पदों व २ दोहों में समाविष्ट है जिसकी प्रत्येक पंक्ति में 'जय शांतिनाथ !' का अनुवाद गुंजित है और संगीत के लय ताल का एक अलौकिक आनन्द प्रदान करता है। अन्त में मूल ग्रन्थकर्ता की प्रशस्ति से ग्रन्थ का समापन किया गया है। समीक्ष्य दोनों कृतियों का प्रकाशन दि० जैन त्रिलोक शोध संस्थान, हस्तिनापुर (मेरठ) से किया गया है, जिसके अन्तर्गत संचालित वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला के ये क्रमशः ३४वें व ३५वें पुष्प हैं। इन ग्रन्थों के समायोजन में आर्यिका चन्दनामती माताजी का योगदान स्तुत्य है। सम्पादक ब्र. रवीन्द्र कुमार जैन जो संस्थान के विश्रुत विद्वान् है छपाई स्वच्छ, निर्दोष तथा गेटअप नयनाभिराम है मूल्य लागत से भी कम रखी गयी जान पड़ती है [प्रत्येक ५-५रु.] - पूज्य माता ज्ञानमतीजी इस ग्रन्थ को रचकर देव पूजन में श्रावकों के लिए एक सक्रिय निमित्त बनी हैं। इस उपकार के लिए सकल दि० जैन समाज उपकृत है। साहित्यिक प्रतिभा और आध्यात्मिक गहराई से सम्पूरित माताजी का करुणाशील अनुकम्पामयी व्यक्तित्व जैन श्रावकों के लिए महान अवदान है। For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012075
Book TitleAryikaratna Gyanmati Abhivandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Jain
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1992
Total Pages822
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size26 MB
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