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________________ ४६०] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला तीस चौबीसी विधान समीक्षक - डा० भागचन्द भागेन्दु, प्राध्यापक एवं अध्यक्षः संस्कृत, प्राकृत एवं जैन विद्या विभाग, शासकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय, दमोह (म०प्र०) पूजा-विधान परम्परा का पुनर्जीवन मानव जीवन की सार्थकता व्यक्तित्व के पूर्ण विकास में है। व्यष्टि से समष्टि में लीन होना ही जीवन का चरमोत्कर्ष तीस चौबीसी है। भक्ति की पवित्र पयस्विनी में अनेक सन्तों, महर्षियों, मनीषियों व रससिद्ध कवीश्वरों ने अवगाहन करके स्वयं को कर्ममल से मुक्तकर मुक्तिवधू का वरण किया तथा आगे आने वाली भव्य भक्त सन्तति का भी मार्ग विधान प्रदर्शित किया है। मानव अपनी उत्कृष्ट जिज्ञासा को इष्ट के प्रति समर्पित करना चाहता है। जब हृदय का उद्रेक प्रस्फुरित होता है तब मानव मन के उद्गारों को व्यक्त करता हुआ स्वयं के ममकार को विगलित कर उसी में तन्मय हो ...आयिका ज्ञानमती --- जाता है। पूज्य आर्यिकारत्न ज्ञानमती माताजी ने पूजन-विधान के क्षेत्र में भी अद्वितीय प्रतिभा का दिग्दर्शन कराया है। नित्यमह पूजाओं तथा विधानों की रचना कर पूजन-विधान परम्परा को पुनर्जीवन प्रदान किया है। प्रस्तुत कृति “तीस चौबीसी विधान" एक ऐसी ही अनुपम कृति है। इसका प्रकाशन वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला के उनतीसवें पुष्प के रूप में हुआ है। प्रतिपाद्य विषय-ग्रन्थ का सम्पूर्ण विषय ३१ पूजाओं के माध्यम से विधान तथा तीस चौबीसी विधान का नक्शा (मॉडल) भी निदर्शित है। ग्रन्थ में यह प्रदर्शित है कि तीस चौबीसी कहाँ-कहाँ विद्यमान हैं। जम्बूद्वीप का एक भरत क्षेत्र, धातकी खंड के दो भरत क्षेत्र और पुष्कराध के दो भरत क्षेत्र इस प्रकार ये सब पाँच भरत क्षेत्र हैं। इसी भाँति पाँच ऐरावत क्षेत्र हैं। इन प्रत्येक क्षेत्र के आर्य खण्ड में भूतकाल में हुए चौबीस तीर्थंकर, वर्तमान काल में हुए चौबीस तीर्थकर तथा भविष्यत् काल में हुए चौबीस तीर्थंकर, इस प्रकार तीनकाल सम्बन्धी तीर्थंकरों की अपेक्षा तीस चौबीसी' हो जाती है। इस तीस चौबीसी विधान में सर्वप्रथम समुच्चय पूजा है। तदनन्तर एक-एक चौबीस की, कुल मिलाकर तीस पूजाएं हैं। अन्त में एक बड़ी जयमाला है। अतः इस विधान में ३१ पूजाएं और ३०४२४-७२० अर्घ्य हैं। ३० पूर्णार्ध्य तथा ३२ जयमालाएं हैं। जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र के आर्यखण्ड में इस वर्तमान चतुर्थकाल में ऋषभदेव से महावीर पर्यन्त चौबीस तीर्थंकर हुए हैं। उनकी भी पूजा इसमें आ जाती है। ग्रन्थ के अन्त में बीस तीर्थंकर की पूजा दी गई है बीस तीर्थंकर कहाँ-कहाँ पर विद्यमान हैं। पूजा के माध्यम से इसका विशद विवेचन मिलता है। लेखन शैली-आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी द्वारा लिखित यह कृति भाषा और विषय दोनों दृष्टियों से मनोरम है। इसमें माताजी की भावयित्री और कारयित्री प्रतिभा का उच्चकोटिक निदर्शन हुआ है। उनकी हिन्दी पद्य-रचना में प्रसाद और माधुर्य गुण विद्यमान है। इसमें पच्चीस छन्दों का प्रयोग हुआ है। यथा-नरेन्द्र, गीता, स्रग्विणी, चाल, अडिल्ल, अनंगशेखर, पृथ्वी, चामर, रोला, शंभु, भुजंगप्रयात, चौपाई, पद्धड़ी, द्रुत, विलम्बित, सखा, धत्ता, पंचचामर, तोटक, मोतीदाम, बंसततिलका, नाराच, कुसुमलता, दोहा, सोरठा । देखिए अनंगशेखर छन्द का उदाहरण सुतत्त्व सात नौ पदार्थ पाँच अस्तिकाय और । द्रव्य छह स्वरूप को भले प्रकार से गुने ।। निजात्म तत्त्व को सँभाल तीन रत्न से निहाल । बार-बार भक्ति से मुनीश हाथ जोड़ते॥ (जम्बूद्वीप-भरत क्षेत्र-भूतकाल-तीर्थकर, पूजा नं. २, जयमाल प.सं. ३. पृ.सं. १३) इनकी रचना शैली पूर्व परम्परा के अनुरूप है। इसका प्रारम्भ मंगलाचरण से होता है। समुच्चय रूप से त्रिकालवर्ती तीर्थंकरों को वंदन करके क्रमशः प्रत्येक का विवेचन है। प्रत्येक पूजन के अन्त में आशीर्वादात्मक छन्द का प्रयोग तथा सर्वशान्ति कामना के लिए 'शान्तये शान्तिधारा' जैसे मन्त्र का प्रयोग किया है। देखिए जो तीस चौबीसी महापूजा महोत्सव को करे। वर पंचकल्याणक अधिप जिननाथ के गुण उच्चरें। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012075
Book TitleAryikaratna Gyanmati Abhivandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Jain
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1992
Total Pages822
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size26 MB
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