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गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ
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किन्तु आज मुझे यह कहते हुए हर्ष व गौरव होता है कि संघ में आना मेरी स्वस्थता के लिए वरदान बन गया। संघ में रहकर संयमित भोजन करने से वह बीमारी सदा-सदा के लिए तिरोभूत हो गई।
रहा सवाल त्याग और संयम धारण न करने की प्रेरणा का । सो वही हुआ जो होना था। माताजी ने तो प्रेरणा नहीं दी, किन्तु आर्यिका श्री रत्नमती माताजी की दीक्षा से मन ही मन तीव्र प्रेरणा मिली। और आज मैं पांच वर्षों से क्षुल्लक पद के व्रतों का भली प्रकार से निर्वाह कर रहा हूँ।
विगत २५ वर्षों में लाखों ग्रंथों का प्रकाशन, सम्यग्ज्ञान हिन्दी मासिक पत्रिका का १८ वर्षों में लगभग ८-९ लाख अंकों का प्रकाशन, जम्बूद्वीप ज्ञानज्योति की भारत यात्रा, जम्बूद्वीप रचना व अन्य जिनालयों का निर्माण आदि जो भी कार्य करने का अवसर प्राप्त हुआ वह सब पूज्य माताजी की कृपा प्रसाद का ही सुफल है।
मैं तो भगवान जिनेन्द्र से यही प्रार्थना करता हूँ कि मेरे जीवन काल तक माताजी की छत्र छाया बनी रहे जिससे धर्म की सेवा एवं आराधना करने की नूतन प्रेरणाएं प्राप्त होती रहें।
निःस्वार्थ धर्मसेविका
-क्षुल्लकरत्न पू० श्री जयकीर्तिजी महाराज
भक्तामर में कहा है
"स्त्रीणां शतानि शतशो जनयन्ति पुत्रान् (पुत्रीन्), नान्या सुतं त्वदुपमं जननी प्रसूता ॥"
वैसे ही एक पूज्य आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी से दशदिशाज्ञानदीप से और जम्बूद्वीप की प्रतिकृति से शाश्वत क्षेत्र की उज्ज्वलता, अमरत्व, न भूतो न भविष्यति और अलौकिक कृति ये सभी के स्मृति में हमेशा रहेगी, जब तक सूर्यचंद्र हैं तब तक इसका कोई बिगाड़ न होगा। पू० माताजी ने निःस्वार्थ धर्मसेवा जिनवाणी का प्रचार-प्रसार किया इससे धर्म का उद्धार, समाज का उद्धार, कुल का गौरव, देश का, गाँव का गौरव बढ़ा है।
बचपन से ही आप में भी माँ के सुसंस्कार थे और घर में ही स्वाध्याय की रुचि होने से ज्ञान बढ़ गया। पूज्य माताजी के सारे सुलक्षण देखकर और हर एक कार्य में धैर्य और वीरता देखकर देशभूषणजी महाराज ने क्षुल्लिका दीक्षा का नाम वीरमती रखा। आगे आ० श्री शांतिसागरजी महाराज के पट्टशिष्य आ० वीरसागरजी महाराज से आर्यिका ज्ञानमती बनकर जगभर में ज्ञानज्योति को प्रज्वलित किया। मैं एक-दो बार हस्तिनापुर गया था, ८ दिन रहा था, साथ में कोल्हापुर के भट्टारकरत्न लक्ष्मीसेनजी महाराज भी थे, मैंने माताजी को बहुत ही पास से देखा, वे वात्सल्य की मूर्ति हैं।
ब्र० रवीन्द्र कुमारजी ने जम्बूद्वीप और पूरा क्षेत्र दिखाया, सो बड़ा आनंद आया। पूज्य माताजी त्याग-संयम की मूर्ति हैं। ____ पूज्य माताजी ने प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गाँधी से ४ जून १९८२ को दिल्ली से जम्बूद्वीप ज्ञानज्योति रथ चलवाया, जो भारत में जैनों का अद्वितीय रथ था एवं भारत का गौरव था, जैन धर्म की शान थी, सो माताजी की प्रेरणा और आशीर्वाद से ज्ञानज्योति भारत भर में घूमकर जैन धर्म की उच्चकोटि की प्रभावना की और जम्बूद्वीप (हस्तिनापुर) की गौरव गाथा को भारत के कोने-कोने में प्रचार और परिचय प्राप्त हुआ था, ये घटना अमर रहेगी, इतिहास में सुवर्ण अक्षरों में लिखी रहेगी।
पूज्य माताजी ने परम विवेक से जान लिया कि आज के भौतिक युग में रुचि बढ़े, आबाल-वृद्धों को प्रिय लगे, सर्व सामान्य जनता को सहज-सुलभ चारों अनुयोगों का स्वाध्याय हो ऐसा स्वहस्तलिखित “सम्यग्ज्ञान" मासिक निकाला, उसमें कपोल-कल्पित साहित्य का विषय नहीं रहता है, केवल देवगुरु शास्त्र की आज्ञा से समीचीन विषय का प्रतिपादन रहता है।
ऐसी ज्ञान की मूर्ति पूज्य माताजी के पावन चरणकमलों में शत-शत नमन ।
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