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________________ २०] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला रास्ते में माताजी लोगों से पूछने लगीं कि वे मोतीचंद कौन हैं जिन्होंने ब्रह्मचर्य व्रत ले रखा है। मेरे बारे में यह जानकारी उन्हें दो दिन पूर्व उनके पास भेजे गये देवेन्द्र कुमार शाह ने दे दी थी। लोगों ने माताजी से कहा कि ये पूजन करके आ ही रहे होंगे। ज्यों ही संघ मेरे निवास स्थान के सामने आया वैसे ही मैंने घर से बाहर आकर चरण वंदना की - नमस्कार किया। तभी अनेक लोगों ने एक साथ कहा कि ये ही वे मोतीचंद हैं जिन्होंने आजन्म ब्रह्मचर्य व्रत ले रखा है, फिर भी गृह जाल में फंसे हुए हैं (माताजी ने आशीर्वाद प्रदान करते हुए कुछ क्षण के लिए दृष्टिपात किया ।) वे ऐसे महान् क्षण थे जब मेरे द्वारा शिष्यत्व ग्रहण न करने के बावजूद भी माताजी ने आशीर्वाद देते हुए अपने मन में ही मुझे अपना शिष्य बनाने का भाव बना लिया । स्वागत जुलूस धर्मशाला पहुँच कर धर्म सभा के रूप में परिणत हो गया। मैंने समाज की तरफ से श्रीफल चढ़ाकर माताजी से आशीर्वचन प्रदान करने के लिए निवेदन किया। प्रवचन सुनकर सभी नर-नारी बहुत प्रभावित हुए। सभा समापन के तत्काल बाद ही माताजी ने मुझसे परिचय पूछा और तभी माताजी कह उठीं कि “जब आजन्म ब्रह्मचर्य व्रत धारण कर रखा है तब किसलिए गृह कारावास में फंसे हो, तुम्हें तो संघ में रहना चाहिये। समाज के विशेष आग्रह पर कुछ दिन संघ वहीं रहा जिससे धर्मामृत की वर्षा होती रही। सारा समाज तब तक संघ की सेवा भक्ति में तल्लीन रहा । संघ सनावद से सिद्धक्षेत्र सिद्धवरकूट दर्शनार्थ गया। वहीं से इन्दौर गया विशेष पुरुषार्थ करके चातुर्मास के लिए संघ को पुनः सनावद लाया गया। आगम की आज्ञा के अनुसार आषाढ़ शुक्ला चतुर्दशी की पूर्व रात्रि में चातुर्मास स्थापना के समय समाज ने सनावद में ही चातुर्मास स्थापना करने हेतु संघ से निवेदन किया। माताजी ने सनावद नगर में चातुर्मास करने की स्वीकृति प्रदान करने के साथ ही अपने प्रवचन में समस्त नर-नारियों के समक्ष गंभीर ध्वनि में कहा कि "अमोलकचंद जी अब मोतीचंद आपके नहीं हमारे है।" इस पर समस्त जन समुदाय हंस पड़ा, उनके साथ ही पिताजी अमोलकचंद जी भी हंस पड़े। उन्हें क्या मालूम था कि माताजी की यह उद्घोषणा एक दिन सत्य सिद्ध हो जावेगी। जबकि मैंने उस समय तक संघ में रहने का किंचित् मात्र भी निर्णय नहीं किया था। बल्कि संघ में रहने की बात सुनकर मुझे मन ही मन बड़ा अटपटा-सा लग रहा था। मैं स्वयं भी यह नहीं जानता था कि भविष्य में ऐसा ही होगा। चातुर्मास प्रारंभ हुआ। विविध कार्यक्रमों के साथ एक-एक दिन व्यतीत होने लगा। माताजी ने प्रारंभ से ही मुझे यह कहना प्रारंभ कर दिया कि जब तुम सुबह, दोपहर, शाम को हमारे पास आते ही हो तो थोड़ा कोई विषय पढ़ लिया करो। अतः विशेष प्रेरणा से मैंने तीन-चार विषयों का अध्ययन प्रारंभ कर दिया। जब अध्ययन प्रारंभ कर दिया तो अब यह कहना शुरू कर दिया कि "अब घर छोड़ो व संघ में रहने की हां भरो। संघ में रहने की बात सुनकर मुझे बड़ा भय-सा लगने लगता कि संघ के मध्य किस प्रकार से सुखपूर्वक खाना-पीना, सोना-उठना बैठना हो सकेगा। मैं दो-तीन माह तक हां कहने के लिए टालता रहा। जबकि माताजी ने करुणा-वश हां कराने के लिए कई बार वस्तुओं का त्याग भी किया कि जिससे मैं किसी तरह से हां कर दूं । इस वातावरण के मध्य एक महान् विषय जम्बूद्वीप रचना निर्माण का भी आया माताजी ने अपने प्रवचनों में श्रोताओं को परोक्ष रूप में अकृत्रिम चैत्यालयों की वंदना साक्षात्वत् कराई। तब कतिपय मेरे साथी युवकों ने उक्त रचना को सिद्ध क्षेत्र सिद्धवरकूट पर बनवाने के लिए अधक प्रयत्न किया। माताजी ने हम चार नवयुवकों-मैं (मोतीचंद), विमलचंद, श्रीचंद व त्रिलोकचंद से यह लिखवाकर वचनबद्ध कराया कि "इस रचना को हम चारों लोग तन-मन-धन से लगकर पूरी करावेंगे।" मैंने तो यह सोचकर हस्ताक्षर कर दिये कि घर भी नहीं छूटेगा और समीप में यह विश्व प्रसिद्ध रचना बन जावेगी। कतिपय कारणों से सिद्धवरकूट में वह रचना नहीं बन सकी, किन्तु इस बहाने संघ में रहने के लिए माताजी ने मुझसे हां करा ली। फिर भी मैं यह बात (संघ में रहने की) माता-पिता को बताने की हिम्मत नहीं कर सका। जब माताजी चातुर्मास के पश्चात् मुक्तागिर सिद्धक्षेत्र की यात्रा करके आचार्य श्री शिवसागरजी महाराज के संघ में पहुँच गई। तब मैं मन को कड़ा करके मन में यह सोचकर कि अब मुझे वापस लौटकर घर में नहीं रहना है पूर्ण तैयारी करके यह कहकर रवाना हुआ कि "माताजी का स्वास्थ्य खराब है मैं उनके दर्शन करने जा रहा हूँ। यह कहकर मैं सनावद से बांसवाड़ा (राज.) माताजी के पास पहुँच गया, पुनः घर में रहने के निमित्त से वापस नहीं गया। संघ में आने के पश्चात् मैंने अपने आपको माताजी के चरणों में अर्पित कर दिया। इसके पश्चात् तो जो कुछ भी हुआ वह माताजी ने अपने ग्रंथ "मेरी स्मृतियाँ" में उल्लिखित किया है। यहीं इस प्रसंग में एक बात और याद आती है कि जब माताजी मुझसे घर छोड़कर संघ में रहने के लिए हाँ करवा रही थीं तब मैंने माताजी से एक शर्त स्वीकार करवाई कि "आप मुझे किसी भी प्रकार के त्याग और संयम की प्रेरणा नहीं देगी जिसे माताजी ने सहर्ष स्वीकार कर लिया था। क्योंकि माताजी यह जानती थीं कि संघ में आने पर अन्य साधु स्वयं ही प्रेरणा देंगे। और मैं त्याग से इसलिए डरता था कि उन दिनों मेरा स्वास्थ्य बहुत खराब रहता था। घर छोड़कर आने से पूर्व मेरे मुंह में इतने छाले रहते थे कि महीने में बीस दिन तो बोलने तक में कठिनाई होती थी। छालों से भारी कष्ट था ऐसा लगता था कि इस बीमारी से इस जीवन में मुक्ति नहीं मिलेगी, किन्तु Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012075
Book TitleAryikaratna Gyanmati Abhivandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Jain
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1992
Total Pages822
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size26 MB
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