SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 391
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [३२९ आचार्य श्री शान्तिसागरजी से आचार्य श्री अभिनन्दनसागर तक निर्दोष आचार्य परम्परा - लेखक- प्रवचनमणि-वाणीभूषण, डॉ० शेखरचन्द्र जैन, अहमदाबाद यदि यह अतिशयोक्ति नहीं है तो यह कथन समीचीन ही है कि आर्ष परंपरा के पुनर्जागरण के अग्रदूत यदि आ० कुन्दकुन्द थे तो लुप्त दिगंबर साधु परंपरा के पुनः प्रसारक आचार्य श्री शांतिसागरजी महाराज थे। उपसर्ग विजयी आ० शांतिसागर जी से पूर्व यद्यपि मुनि श्री देवेन्द्रकीर्ति स्वामी थे, पर आचार्य परंपरा की परंपरा इस शताब्दी में उन्हीं से प्रारम्भ हुई। समडोली ग्राम में उनके चतुःसंघ की स्थापना हुई थी। यहीं पर उन्हें प्रथम दिगंबराचार्य के रूप में संघ ने पदविभूषित किया था। दिगंबर आम्नाय की ध्वजा पुनः दक्षिण से उत्तर तक निर्बाध रूप से फहराने का श्रेय इन्हीं आचार्यश्री को है। "चारित्तो खलु धम्मो" के साकार आराधक आचार्य को समस्त जैन समाज ने "चारित्र-चक्रवर्ती की उपाधि प्रदान कर दिगंबर धर्म के चारित्र के महत्त्व को ही अभिनंदित किया था। जैनधर्म में महान् मृत्युमहोत्सव सल्लेखना धारण कर पूरे भारत और विश्व को मृत्यु की निस्पृहता उसका प्रसन्नचित्त पर दृढ़ता से स्वीकार कर प्रत्यक्ष दर्शाया था। मुक्तिपंथ का पथिक आत्मकल्याण के साथ इस आर्ष परंपरा के उन्नयन के लिए चिंतित था। तभी तो दि० २४-८-५५ को उन्होंने संघ के समक्ष घोषणा की थी- "मेरा शिष्य वीरसागर मुनि इस समय मुझसे बहुत दूर जयपुर में है, यदि वह यहाँ होता तो मैं मेरे हाथ से आचार्यपट के संस्कार करता।" (सम्यग्ज्ञान से उद्धृत) और अपने उत्तरदायित्व का आदेश ब्र० सूरजमल जी के हाथों जयपुर भेजकर आचार्यपद अपने शिष्य मुनि वीरसागर को अर्पित किया। ऐसी उज्ज्वल परंपरा के आचार्यों का संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत है। प्रथम पट्टाधीश १०८ आ० वीरसागरजी महाराज :- सन् १८७६ में महाराष्ट्र में जन्मे बालक हीरालाल ने "हीरा" और "लाल" दोनों जवाहरात की तरह अपने चरित्र को दृढ़ व्रतों के पालन द्वारा बहुमूल्य बनाया। पिता रामसुख और माता भाग्यवती के नाम को उज्ज्वलित किया। सचमुच रामसुख अर्थात् परमसुख भाग्यवानों को ही नसीब होता है। यद्यपि आचार्यश्री के अनेक शिष्य थे। सभी चरित्र के आदर्श थे, पर वीरसागर की तपोनिष्ठचर्या, उपसर्ग सहन की वीरता, संघसंचालन की कुशलता एवं वरिष्ठता के कारण ही आ० शांतिसागर ने अपना उत्तरदायित्व इन्हें सौंपा था। सन् १९२४ में वैराग्य की दृढ़ता का परीक्षण कर आ० श्री शांतिसागरजी ने आपको विधिवत् दीक्षा प्रदान की एवं वीरसागर नाम प्रदान किया, जो उनकी दृढ़ता का सूचक था। आपने अपने गुरु के सानिध्य में बारह चातुर्मास किए। शास्त्रों का विशेष अध्ययन किया। अनेक वैरागी आत्माओं को दीक्षा देकर सत्पथ पर लगाया। शिष्यों के प्रति अनुशासन एवं वात्सल्य के धारक आचार्यश्री ने गुरु के पथ का अनुसरण करते हुए जयपुर खानिया में सल्लेखना धारण कर समाधिमरण प्राप्त किया। द्वितीय पट्टाधीश १०८ आ० श्री शिवसागरजी महाराज : पू० आ० वीरसागरजी की समाधि हो जाने से पूर्व वे अपना पट्टाधीश घोषित नहीं कर पाये थे। पर, संघ ने संघस्थ मुनि शिवसागरजी की चारित्रशुद्धि दृढ़मनोबल, संघ संचालन की क्षमता एवं सकल मुनि-आर्यिका आदि का मनोभाव जानकर उन्हें आचार्य पद पर प्रतिष्ठित होने का संकल्प किया। मुनि शिवसागरजी को सर्वसम्मति से संघ ने अपना आचार्य स्वीकार किया। दक्षिण भारत में दिगंबर परंपरा की धारा अविच्छन्न रूप से प्रवाहित होती रही है। इसी भूमि ने दिगंबराचार्यों को जन्म देकर धन्यता प्राप्त की। इसी दक्षिणांचल के महाराष्ट्र प्रांत के औरंगाबाद जिले में अड़गांव ग्राम में खण्डेलवाल गोत्रीय नेमीचंद श्रेष्ठीवर्ग की धर्मपत्नी धर्मशीला दगड़ाबाई की कुक्षि से जन्मे बालक का नाम हीरालाल रखा गया था। शायद यह विधि का संकेत ही था कि इस परंपरा को दूसरा हीरा मिलना था। प्रथम हीरा थे आ० वीरसागर और दूसरे हीरा थे आ० शिवसागर। संसार को पूर्व जन्म के संस्कारों से असार मानने वाले हीरालाल उससे जल कमलवत् अछूते ही रहे। संसार के विषय-भोगों के निकट ही नहीं गये- बालब्रह्मचारी रहे। आचार्य श्री शांतिसागरजी से २८ वर्ष की आयु में द्वितीय प्रतिमा के व्रत ग्रहण किए। पश्चात् आ० श्री वीरसागरजी से क्षुल्लक दीक्षा ग्रहण की। आ० वीरसागर की दृष्टि में ब्र० हीरालाल में शिवत्व कल्याण करने की शक्ति व भावना के दर्शन किए, उन्हें जैसे आभास हो गया था कि हमारी इस शुद्ध परंपरा की वृद्धि व कल्याण इन्हीं से होगा- आ० शिवसागरजी नाम प्रदान किया। क्षु० शिवसागर सं० २००६ में ६ वर्ष बाद ही मुनि दीक्षा से दीक्षित हुए और मुनि शिवसागर बन गये। अपने गुरु के सानिध्य में ८ वर्ष रहकर ज्ञान और चारित्र की दृढ़साधना की। परंपरा के अनुरूप मुमुक्षुओं को सद्धर्म का मार्ग प्रशस्त किया। समाज द्वारा आचार्यत्व का उत्तरदायित्व सौंपने पर ११ वर्षों तक सफलता से सुचारु रूप से संघ का संचालन किया उसे गौरव प्रदान किया। अभी आपके कुशल संचालन व मार्गदर्शन की महती आवश्यकता Jain Educationa international For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012075
Book TitleAryikaratna Gyanmati Abhivandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Jain
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1992
Total Pages822
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy