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________________ ३३०] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला आ० श्री धर्मसागरजा सागरजी की एकाएक समाजी में शांतिवीरनग थी कि साधारण ज्वर आने पर ही अल्पवय में सं० २०२६ में आपका समाधि मरण हो गया। जैनाकाश से एक तीव्रसितार खिर गया। दिग्मूढ़ रह गये सभी। तृतीय पट्टाधीश १०८ आ० श्री धर्मसागरजी महाराज : अचानक पट्टाधीश के चयन के बिना ही आ० शिवसागरजी की एकाएक समाधि हो गई। लगा समाज-संघ निराधार हो गया। पर, वीरप्रभू धरती कर्मवीरों से खाली नहीं होती। वि०सं० २०२५ में बिजौलिया चातुर्मास के पश्चात् श्री महावीरजी में शांतिवीरनगर में आयोजित प्रतिष्ठा में आये साधू संघ के आचार्य पू० शिवसागरजी की अचानक समाधि हो जाने पर वहाँ उपस्थित चतुर्विध संघ ने ज्ञान-तप-चारित्र के धनी वरिष्ठ मुनि श्री धर्मसागरजी को अपना तृतीय आचार्य स्वीकार किया। दक्षिण की धारा उत्तर में भी बढ़ रही थी। इसी धारा का पावन सलिल, राजस्थान की सूखी धरती को भी प्लावित कर रहा था। महाराणा की वीर भूमि, हाडौती की शान भूमि बूंदी जिले के गंभीराग्राम में श्रेष्ठीवर्य वख्तावरमल एवं उनकी पत्नी उमरावबाई की कुक्षि से एक बालक का जन्म हुआ। नाम दिया गया-"चिरंजीलाल" नाम सार्थक किया बालक ने। अपने कार्य से वह चिरंजीवी बन गया। जन-जन का पथ-दर्शक बना। आर्ष परंपरा पर हो रहे आक्रमण के सामने सुमेरु सा अडिग रहा । तूफान में दीये सा जलता रहा। मुनि परंपरा पर छाने वाले कोहरे को अपनी ज्ञान किरणों से, चरित्र की अग्नि से पिघलाता रहा। ऐसे बालक चिरंजीलाल ने ही धर्मसागर के नाम से सचमुच धर्म का सागर ही लहरा दिया। संयम और साधना जिसके संस्कारों में जन्म से ही उतरे थे वह गृहस्थ जीवन की भंवर में क्यों फँसता ? युवावस्था में ही आ० चन्द्रसागर जी महाराज से सप्तमप्रतिमा रूप ब्रह्मचर्यव्रत धारण किया एवं वि०सं० २००१ में उन्हीं से क्षुल्लक दीक्षा धारण करके क्षु० भद्रसागर बने। आपकी भद्रता देखकर दो वर्ष में ही आ० वीरसागरजी ने आपको ऐलक दीक्षा प्रदान की। पर दिगंबरत्व की चरम अवस्था मुनि पद के अभिलाषी ऐलक को चैन कहाँ था ? फलतः वर्ष बाद ही मुनिपद प्राप्त कर भद्रसागर बने-मुनि धर्मसागर। यही धर्मसागर थे हमारे तृतीय पट्टाधीश। आपने दीर्घकाल तक लगभग १५ वर्ष तक इस जिम्मेदारी का निर्वाह किया। जब देश में सोनगढ़ की मनगढंत परंपराओं का जहरीला जंगल पनप रहा था- उस समय सच्चे धर्म-शास्त्र-गुरु की परंपरा की अक्षुण्णता बनाने का कठिन कार्य इन्हीं आचार्यश्री ने किया। आज दिगंबर समाज उनका ऋणी है। ऐसे तपोनिष्ठ महान आचार्य ने साधना जीवन के चालीस वर्ष १९८७ की २२ मार्च को सीकर (राज.) में पूर्ण कर समाधि प्राप्त की। चतुर्थ पट्टाधीश १०८ आ० अजितसागरजी महाराज : दिगंबर परंपरा की एक पावनधारा महाराष्ट्र से होकर राजस्थान की ओर प्रवाहित हुई थी तो दूसरी मध्यप्रदेश को सिंचित कर रही थी। इसी मध्यप्रदेश की भूमि कस्बा आष्टा के समीप भौंरा ग्राम में श्रावक श्रेष्ठी श्री जबरचंद एवं उनकी धर्मपत्नी रूपाबाई के घर वि०सं० १९८२ में एक तेजस्वी बालक का जन्म हुआ। बचपन का नाम राजमल रखा गया था। "होनहार बिरवान के होत चीकने पात" की कहावत बालक के व्यवहार से चरितार्थ होने लगी। उम्र के साथ बालक में पनपा वैराग्य । भोग-विलास उनसे डरकर दूर ही रहा। स्वाति की बूंदों का चाहक चातक आखिर ब्रह्मचर्य व्रत को प्राप्त हो ही गया। यह सुयोग ही था कि इस जिनेश्वरी दीक्षा की प्रेरणास्रोत आर्यिका ज्ञानमती माताजी उनकी शिक्षा गुरु रहीं। इन्हीं माताजी के सानिध्य में ब्र० राजमलजी ने राजवार्तिक, गोम्मटसार, पंचाध्यायी आदि ग्रंथों का गहन अध्ययन किया। ज्ञान से सिंचित ब्रह्मचारी का मन माताजी की प्रेरणा से वैराग्य की तीव्रतम कक्षा पर पहुँच गया। इतने दिनों में ज्ञान व चरित्र की साधना दृढ़ होती गई। सं० २०१८ में इस प्रेरणा के प्रतिबिंबस्वरूप आपने आ० श्री शिवसागरजी से सीधे मुनिदीक्षा प्राप्त कर अजितसागर नाम प्राप्त किया। . आ० १०८ धर्मसागर की समाधि भी पट्टाधीश की नियुक्ति के बिना हो गई थी। पुनः प्रश्न खड़ा ही था। पर संघस्थ साधुओं के विवेक ने मार्ग प्रशस्त कर दिया। आ० कल्प श्रुतसागर महाराज एवं चतुर्विध संघ की अनुमति से १९८७ की ७ जून को उदयपुर में आपको इस महान् परंपरा के चतुर्थ आचार्य के पद पर प्रतिष्ठित किया गया। इस प्रतिष्ठित पद पर अजितसागरजी का प्रस्थापन चतुर्विध संघ को मान्य था। वास्तव में योग्य तपःपूत साधू का चयन हुआ था। पर, आयु कर्म की क्षीणता, तप की तीव्रता एवं स्वास्थ्य की धूप-छांव में यह, पर वे तीन वर्ष ही सम्हाल पाये और ७ मई १९९० को इस देह से मुक्त होकर समाधिमरण को प्राप्त हुए। पंचमपट्टाधीश १०८ आ० श्री श्रेयांससागरजी महाराज : कौन जानता था कि इतने अल्पकाल में ही संघ के आचार्य अजितसागरजी समाधिस्थ हो जायेंगे? आचार्य पद की समस्या खड़ी हुई। चतुर्थ पट्टाधीश तक यह अक्षुण्ण परंपरा थी। पर, पू. आचार्य अजितसागरजी के पश्चात् किन्हीं अवर्णनीय कारणों से इस परंपरा को जैसे उपसर्ग ही झेलना पड़ा। निःसंकोच रूप से स्वीकार करना चाहिए कि संघ दो भागों में विभक्त हो गया। वह हम सबका दुर्भाग्य ही था। पर, बहुमत व अधिकांश साधू वर्ग व श्रावक वर्ग द्वारा पंचमपट्टाधीश के रूप में आचार्यकल्प श्री श्रेयांससागरजी को स्वीकार किया गया। इससे बड़ा दुर्भाग्य तो यह रहा के पू० आचार्य श्री इस पद पर अल्पकाल तक ही रहे- उनका सद्यः समाधिमरण हुआ है। पुनः एक बार धारा दक्षिण की ओर मुड़ी। जिनके गृहस्थ जीवन के नाना थे आ० वीरसागरजी महाराज और बाबा थे आ० श्री चंद्रसागरजी महाराज । ऐसे मातृ-पितृ पक्ष से धर्म के संस्कारों से सिंचित बालक फूलचंद के माता-पिता थे श्रीमान् सेठ लालचंदजी और माता कुन्दनबाई। माता कुन्दनबाई भी आर्यिकाव्रत-धारिणी बनकर मांगीतुंगी क्षेत्र से समाधिमरण को प्राप्त हुई। इनके संस्कार और दूध में जिनेश्वरी वातावरण अवतरित हुआ था। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012075
Book TitleAryikaratna Gyanmati Abhivandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Jain
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1992
Total Pages822
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size26 MB
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