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गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ
संसार को वैवाहिक सूत्र में बँधकर भोगा चार संतानों के पिता बने। व्यापार किया। श्रीरामपुर में पहाड़े सेठ के नाम से नामना भी प्राप्त की। सांसारिक जीवन ऐसा था मानो हीरा पर धूल जम गई थी । ज्यों ही वैराग्य का वातावरण मिला- धूल धुलने लगी। और सं० २०१८ में मुनि श्री सुपार्श्वसागरजी से दो प्रतिमा धारण की कैसा सुयोग था कि १९६५ में महावीरजी में शांतिवीरनगर में आयोजित पंचकल्याणक प्रतिष्ठा के शुभ अवसर पर सेठ फूलचंद और पत्नी लीलाबाई दोनों ने मुनि व आर्यिका दीक्षा लेने का संकल्प किया। गृहस्थ जीवन में सम्मति से रहने वाले दंपति ने त्याग में अपूर्व सम्मति का परिचय दिया। दोनों निजात्मा के कल्याणार्थ त्यागी जीवन के पथ पर चल पड़े। पूज्य आ० शिवसागरजी ने क्रमशः मुनि श्रेयांससागर व आर्यिका श्रेयांसमती के नाम से विभूषित किया। आश्चर्य पुत्र और पुत्रवधू को दीक्षित देख गृहस्थ जीवन की माता और अब क्षु० माताजी ने भी आर्यिका दीक्षा ग्रहण की। सचमुच प्रत्येक जीव स्वतंत्र है- अपना कल्याण स्वयं करना है, इस जैन दर्शन को इन तीनों ने सार्थक किया। आ० शिवसागरजी के साथ आपने अनेक स्थानों पर विहार कर महती धर्मप्रभावना की। स्वाध्याय जीवन का मुख्य ध्येय होने से आपका अधिकांश समय ज्ञानार्जन एवं आत्म निरीक्षण में ही बीता। अनेक दीक्षायें आपके द्वारा सम्पन्न हुई। आपने निरंतर धर्म के प्रतीक तीथों के जीर्णोद्धार के कार्य कराये। जिसका प्रमाण तीर्थक्षेत्र मांगीतुंगी है।
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१० जून, १९९० को पू० आचार्य अजितसागरजी के उत्तराधिकारी का आचार्यपद लोहारिया राजस्थान में आपको अर्पित किया गया था। आपने अल्पकाल लगभग डेढ़ वर्ष तक ही संघ का संचालन किया उसे सम्हाला, टूटने से बचाया और नई चेतना दी। आपकी समाधि दिनाँक १९ फरवरी १९९२ बाँसवाड़ा (राज०) स्थान पर हुई।
षष्ठम पट्टाचार्य १०८ श्री अभिनन्दनसागरजी महाराज :
राजस्थान का उदयपुर जिला अनेक साधुओं के जन्म से पावन रहा है। इसी श्रृंखला में "शेषपुर" नामक ग्राम में वर्तमान के छठे पट्टाचार्य श्री १०८ अभिनंदनसागरजी महाराज का जन्म वि०सं० १९९९ में हुआ। इनका गृहस्थावस्था का नाम धनराज था। माता रूपीबाई एवं पिता श्री अमरचन्दजी के घर में तो मानो सचमुच धन-लक्ष्मी की वर्षा हो गई थी। बालक के होनहार बचपन से वे लोग अपने भाग्य को सराह कर भी थकते नहीं थे।
दिगम्बर जैन समाज के बीसा नरसिंहपुरा जातीय जगुआवत गोत्रीय धनराज की बाल्यकाल से ही धर्म के प्रति अतिशयरुचि थी । अतः युवावस्था में भी इन्होंने बालब्रह्मचारी रहने का निर्णय किया।
आपकी लौकिक शिक्षा कक्षा ८ तक है। उसके पश्चात् सत्संगति व उपदेशों के कारण जीवन में वैराग्यभाव उत्पन्न हो गया और मुक्तागिरी सिद्धक्षेत्र पर स्वयं ही आजन्म ब्रह्मचर्यव्रत तथा पाँचवीं प्रतिमा धारण कर ली। माता-पिता को सांत्वना देकर अब ब्रहमचारी धनराजजी त्याग की अगली सीढ़ी पर चढ़ने का प्रयास करने लगे। फलस्वरूप वि०सं० २०२३ (ईस्वी सन् १९६७) में आचार्य श्री महावीरकीर्तिजी के शिष्य मुनि श्री वर्धमानसागरजी के करकमलों से मुंगाणा में क्षुल्लक दीक्षा ग्रहण की, पुनः वि०सं० २०२५ (सन् १९६९) चारित्र चक्रवर्ती आ० श्री शांतिसागर महाराज की परम्परा के द्वितीय पट्टाधीश आचार्य श्री शिवसागरजी महाराज से ऐलक दीक्षा ली और उसी सन् १९६९ में फाल्गुन शुक्ला अष्टमी को श्री शान्तिवीरनगर - महावीरजी में पंचकल्याणक प्रतिष्ठा के अवसर पर तृतीय पट्टाचार्य श्री धर्मसागर महाराज से मुनि दीक्षा लेकर "अभिनन्दनसागर" नाम प्राप्त किया। मुनि दीक्षा के समय आपकी उम्र मात्र २४ वर्ष की थी, किन्तु सौम्य शांतमुद्रा, चारित्रिक दृढ़ता और ज्ञानाभ्यास की लगन ने आपकी कीर्ति को प्रसरित करना प्रारम्भ कर दिया ।
सन् १९७१ के अजमेर चातुर्मास के पश्चात् आपने अपना अलग संघ बनाकर मुनिश्री दयासागर जी और मुनि श्री सुपार्श्वसागरजी को संघ का प्रमुख बनाकर सम्मेदशिखर, बुन्देलखण्ड, दक्षिण भारत उत्तर प्रदेश आदि प्रान्तों में प्रभावनापूर्ण विहार किया, अनेक शिष्य-शिष्याओं का संग्रह किया। लगभग ८ वर्षो से आप उपाध्याय पद पर प्रतिष्ठित थे, पुनः ८ मार्च सन् १९९२ को चतुर्विध संघ ने आपको खान्दूकालोनी (राज०) में छठे पट्टाचार्य पद पर अभिषिक्त किया है क्योंकि चारित्रचक्रवर्ती आचार्य श्री की निर्दोष अविच्छिन्न परम्परा में पंचमपट्टाचार्य श्री श्रेयांससागरजी महाराज की आकस्मिक समाधि के पश्चात् आप ही इस परम्परा के सर्ववरिष्ठ मुनिराज हैं; अतः पूर्व परम्परानुसार चतुर्विध संघ द्वारा आप आचार्य पद को प्राप्त कर इस निष्कलंक आर्ष परम्परा का संरक्षण संवर्द्धन करने में कटिबद्ध है।
आजकल आपके विशाल संघ का चातुर्मास केशरियाजी (राज०) में चल रहा है। जहाँ विविध धार्मिक कार्यक्रमों के द्वारा अतिशायी धर्मप्रभानवा हो रही है।
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निष्कलंक परम्परा के रक्षक परमपूज्य षष्ठ पट्टाचार्य श्री १०८ अभिनन्दनसागरजी महाराज चिरकाल तक पृथ्वी तल पर जीवन्त रहें तथा उनकी शिष्य परंपरा वृद्धिंगत होवे, यही जिनेन्द्रप्रभु से प्रार्थना है।
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