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________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [५९ नीति लिखी है प्रारभ्यते न खलु विघ्नभयेन नीचैः, प्रारम्भ विघ्नविहिता विरमन्ति मध्याः । विघ्नैः पुनः पुनरपि प्रतिहन्यमाना, प्रारम्भ चोत्तमजना न परित्यजन्ति । अर्थात् जघन्य श्रेणी के मनुष्य विघ्नों के डर से कोई काम प्रारंभ नहीं करते, मध्यम श्रेणी के पुरुष काम तो प्रारंभ करते हैं, पर जैसे ही विघ्न आते हैं, वे उस काम को छोड़े देते हैं, लेकिन उत्तम श्रेणी के पुरुष बार-बार विघ्नों से पीड़ित होने पर भी उस कार्य को पूरा ही करके छोड़ते हैं। पूज्य माताजी के साथ भी यही हुआ। हस्तिनापुर में जहाँ उनका अकस्मात् विहार हुआ था, वहां इस कार्य को प्रारंभ करवा दिया। तब कुछ विघ्न-प्रिय बन्धुओं ने अनेक रोड़े अटकाये, यदा-तदा अपने विचार प्रकट किये, फिर भी जम्बूद्वीप के निर्माण का कार्य रुका नहीं, उल्टा उन्हें इस कार्य में प्रोत्साहन मिलता रहा। पूज्य माताजी के शुभाशीर्वाद से निर्माण कार्य चलता ही रहा, कुछ जैन पत्र-पत्रिकाओं ने भी अपनी प्रवृत्ति के अनुसार इस निर्माण कार्य का विरोध किया, लेकिन बाढ़ के पानी की तरह रुकावटें आने पर भी निर्माण कार्य का प्रभाव अपने ढंग से चलता ही रहा और अन्त में जम्बूद्वीप का निर्माण कार्य पूरा होकर उसकी पंचकल्याणक प्रतिष्ठा भी बड़े उत्साह और विशाल जनसमूह के बीच में सम्पन्न हुई। आज उस जम्बूद्वीप की छवि देखते ही बनती है। सुमेरु पर्वत, उसके ऊपर चारों वन, षट्कुलाचल पर्वत, गजदन्त पर्वत, कुलाचलों के ऊपर पद्मद्रह आदि षट्सरोवर, बत्तीस विदेह, लवणसमुद्र, गंगा सिंधु आदि नदियाँ, वक्षार पर्वत, पर्वतों पर चैत्यालय आदि की शोभा देखकर मन प्रफुल्लित हो जाता है। कुछ भाइयों का कहना है कि जम्बूद्वीप की जगह अगर नंदीश्वरद्वीप बनाया जाता तो ठीक था; क्योंकि जम्बूद्वीप का कोई पूजा विधान नहीं होता, जैसा कि नंदीश्वरद्वीप की पूजा विधान का प्रचार है। इस संबंध में हमारा कहना यह है कि नंदीश्वर नाम का कोई द्वीप है यह हम जैन तो स्वीकार करते हैं और करना चाहिये, लेकिन जैनेतर लोग नंदीश्वर नाम का कोई द्वीप स्वीकार नहीं करते हैं और न जैनों के शास्त्रों को छोड़कर किसी वैदिक, बौद्ध आदि मतों में नंदीश्वरद्वीप का कोई उल्लेख है। अतः दर्शनार्थी जैनेतर लोगों का जो जम्बूद्वीप के प्रति आकर्षण हो सकता था, वह नंदीश्वरद्वीप के प्रति नहीं होता। आज जम्बूद्वीप को देखने की उत्सुकता सभी को होगी; क्योंकि उन्होंने अपने ग्रन्थों में जम्बूद्वीप का नाम सुना है, लेकिन नंदीश्वरद्वीप के प्रति हम जैनों को छोड़कर किसी का आकर्षण नहीं होता, अतः सार्वजनिक प्रचार के लिए अपनी वस्तु निर्माण करना अधिक अच्छा है। जैन धर्म के प्रचार को लेकर सार्वजनिक निर्माण की घटना यह विश्व की पहली घटना है और इसका श्रेय पूज्य माताजी ज्ञानमतीजी को है। माताजी कट्टर आर्षमार्गानुगामिनी हैं और आर्ष मार्ग के प्रचार के लिए पूर्ण कटिबद्ध हैं, किंतु अपनी मान्यताओं के लिए वे किसी से विरोध भी नहीं रखना चाहतीं; यही कारण है कि जम्बूद्वीप के स्थान में बने हुए मंदिरों में भगवान् की पूजा कोई तेरह पंथ के अनुसार करे या बीस पंथ के अनुसार उन्हें इससे कोई मतलब नहीं है। आज भी हम महावीरजी आदि तीर्थों में ऐसा ही देखते हैं जो लोग सार्वजनिक तीर्थों पर किसी एक पंथ का आधिपत्य रखना चाहते हैं वह सर्वथा गलत है। पू० ज्ञानमती माताजी को और उनके साहित्य को देखा जाये तो लगता है माताजी सरस्वती की वरद पुत्री हैं। पूज्य माताजी के इस अभिवंदन समारोह के अवसर पर मैं श्रद्धापूर्वक उनके दीर्घ जीवन की कामना करता हूँ। मेरी इच्छा भी है कि हस्तिनापुर तीर्थ क्षेत्र पर रहकर मैं माताजी के ना करूँ । पज्य माताजी का जन्म सन् १९३४ में हआ है और सन् १९३४ में ही मैंने गृहस्थ धर्म स्वीकार किया है, ऐसा लगता है कि मेरे गृहस्थ जन्म के साथ ही माताजी का शारीरिक जन्म इसलिए हुआ कि वे मुझे गृहस्थ झंझट में न पड़ने की प्रेरणा देती रहें। अपने प्रति उनके इस उपकार के लिए मैं माताजी को शत-शत बार नमन करता हूँ। संस्मरण - डॉ० कस्तूरचंद कासलीवाल, जयपुर आर्यिकारत्न ज्ञानमती माताजी के मुझे प्रथम दर्शन कब हुये थे यह तो याद नहीं है, लेकिन विगत २० वर्षों से मैं आपकी पुस्तकों का पाठक रहा हूँ मेरे मन में आपकी अद्भुत कृतित्व शक्ति को देखकर आपके प्रति सहज श्रद्धा के भाव जाग्रत हुये। माताजी ने देहली में एक विशाल स्तर पर संगोष्ठी आयोजित की थी, जिसमें विविध विषयों के पचासों अधिकारी विद्वान् सम्मिलित हुये थे। मुझे भी उसमें भाग लेने का अवसर प्राप्त हुआ था। उसी समय माताजी ने जम्बूद्वीप संरचना की अपनी महती योजना को विद्वानों के सामने रखा था। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012075
Book TitleAryikaratna Gyanmati Abhivandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Jain
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1992
Total Pages822
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size26 MB
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