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वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला
संगोष्ठी में माताजी के गहन अध्ययन का परिचय सभी विद्वानों को हुआ। माताजी ने जम्बूद्वीप संबंधी अपने शास्त्रीय ज्ञान से सबको संतुष्ट करने का प्रयास किया था। एक बात मुझे और याद है कि माताजी ने संगोष्ठी में उठे प्रश्नों का इस प्रकार सप्रमाण उत्तर दिया कि मानो सभी ग्रंथ उनके मस्तिष्क में रखे हुये हों। माताजी की हाजिर जवाबी से सभी विद्वान् उनकी व्युत्पन्न मति से परिचित हो गये।
उसके पश्चात् हस्तिनापुर में कितनी ही बार आने का अवसर मिला, कभी संगोष्ठी में निबन्धवाचक के रूप में, पंचकल्याणक के अवसर पर, आर्यिका रत्नमति अभिनंदन ग्रंथ संपादन के लिये और फिर विमोचन के अवसर पर मैं आता रहा और माताजी का आशीर्वाद मिलता रहा। माताजी के प्रति मन में स्वाभाविक श्रद्धा उत्पन्न हो गई और एक-दो समारोहों को छोड़कर सभी समारोहों में उपस्थित होने में मुझे प्रसन्नता हुई और अधिक से अधिक माताजी का आशीर्वाद प्राप्त करने में आनन्द का अनुभव हुआ। माताजी अनुशासनप्रिय हैं। जिस प्रकार अपने संघ को अनुशासन में रखती हैं उसी तरह उनकी यह भी भावना रहती है कि उनके द्वारा आयोजित सभी कार्यक्रम पूर्ण व्यवस्थित हों।
एक बार जब मैं आर्यिका रत्नमतीजी के अभिनंदन ग्रंथ की प्राप्त सामग्री का सम्पादन कर रहा था तो मुझे सर्वप्रथम आर्यिका रत्नमती माताजी के दर्शन हुये। माताजी ने जब आर्यिका रत्नमती माताजी का परिचय दिया और जब वे प्रातःकाल माताजी की प्रवचन सभा में आयीं तो उन्होंने आपको [आर्यिका ज्ञानमती जी को] सादर वन्दामि किया और फिर दूर एक पट्टे पर जाकर बैठ गईं। उस समय संघ की अनुशासनप्रियता को देखकर प्रसन्नता हुई। वर्तमान में भी आर्यिका चन्दनामतीजी यद्यपि उनकी गृहस्थावस्था की बहिन हैं, लेकिन उनकी शिष्या होने एवं संघ में होने के कारण वे भी पूर्ण अनुशासन से अपने आर्यिका धर्म का पालन करती हैं।
एक बार जब मैं माताजी के पास बैठा हुआ उनकी कृतियों को देख रहा था कि मुझे उनके द्वारा लिखित डायरी के कुछ पृष्ठ पढ़ने को मिले।मैंने उन पृष्ठों को पढ़कर माताजी से निवेदन किया कि "मेरी जीवन गाथा" के रूप में आप इन्हें लिखकर प्रकाशित करा दें तो आपकी जीवन गाथा को हम सबको पढ़ने का अवसर मिलेगा और महाकवि बनारसीदास एवं ब्र० गणेशप्रसादजी वर्णी की जीवन गाथाओं के समान एक बहुमूल्य कृति बन जावेगी। माताजी ने बड़ी कृपा करके पहिले छोटे रूप में और फिर अब तक के अपने पूरे जीवन पर “मेरी स्मृतियाँ" के नाम से जीवन गाथा लिखकर प्रकाशित भी करा दी। दोनों ही कृतियों में माताजी ने मुझे जब प्रस्तावना लिखने का आदेश दिया तो मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई और माताजी की कृपा को मैंने पावन प्रसाद के रूप में स्वीकार किया।
पंचकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव मई १९८५ के पश्चात् माताजी बहुत बीमार पड़ गईं और इतनी अधिक कमजोर हो गई कि हाथ उठाकर आशीर्वाद देने की स्थिति में नहीं रहीं। उस समय मैं और श्री त्रिलोकचंदजी कोठारी महामंत्री महासभा हस्तिनापुर जब माताजी के दर्शन करने आये तो उनकी स्थिति देखकर बड़ी चिन्ता हुई। माताजी का जीवन देश एवं समाज के लिये बेशकीमती है और उसकी रक्षा होना अनिवार्य है। हम भगवान
आदिनाथ से उनके दीर्घ जीवन की कामना करते हुये वापिस लौट गये। उस समय हमें बताया गया कि माताजी की चर्या में कोई अन्तर नहीं है तथा वे अपने प्राणों की परवाह किये बिना अपनी चर्या में पूर्ण दृढ़ हैं।
माताजी का जीवन विविध आयामों में होकर व्यतीत हुआ है। जब से उन्होंने सर्वप्रथम क्षुल्लिका और फिर आर्यिका के व्रत ग्रहण किये तब से लेकर आज तक मुनि संघों में रहते हुये और फिर स्वतंत्र संघ बनाकर, जम्बूद्वीप में रहकर अपने साधु जीवन को त्याग, साधना एवं तपस्या की उच्चतम ऊंचाइयों में रखा है। उसमें थोड़ा भी स्खलन नहीं होने दिया। माताजी के जीवन की यही तो विशेषता है। उनका ३७-३८ वर्ष का आर्यिका जीवन साधु समाज एवं श्रावक समाज दोनों के लिए आदर्श का जीवन है, जिस पर सारे समाज को गर्व है।
आपका सैद्धांतिक ज्ञान तो इतना गहन है कि उसके समकक्ष हम किसी को रख नहीं सकते। आपकी प्रारंभ में शास्त्रों के तलस्पर्शी अध्ययन की ओर रुचि रही है और व्युत्पन्नमति होने के कारण आपने जो कुछ पढ़ा वह आपको कंठस्थ हो गया। जब जयपुर एवं ब्यावर में आपको व्याकरण एवं काव्यशास्त्र पढ़ाने के लिए पंडितजी रखे तो वे तो आपकी व्युत्पन्नमति से इतने प्रभावित हुये कि दो महीने में ही आपको स्वयं से अधिक ज्ञानी मानने लगे। बचपन में भी जब मास्टरजी आपको पढ़ाते थे तो पढ़ते-पढ़ते कक्षा में ही पूरा पाठ याद हो जाता था। आपके ज्ञान का विशेष क्षयोपशम होने की बात तो आचार्य वीरसागरजी महाराज ने भी स्वीकार की थी।
अपने परिवार के अधिकांश सदस्यों को और यहाँ तक अपनी माँ को भी वैराग्य मार्ग की ओर मोड़ देना बहुत बड़ी विशेषता है; क्योंकि वैराग्य की बात की जा सकती है/प्रशंसा की जा सकती है। उसके गुणानुवाद गाये जा सकते हैं, लेकिन स्वयं को वैराग्य पथ पर चलाना बड़ा कठिन कार्य है। बाल्यावस्था में बचपन आड़े आता है, युवावस्था में पत्नी का विरह सताता है, प्रौढ़ावस्था में घर-गृहस्थी का चक्कर फंस जाता है और जब वृद्धावस्था आ जाती है तो इन्द्रियों के शिथिल होने का बहाना बनाया जाता है, लेकिन माताजी ने बाल्यावस्था में ही अपने आपको वैराग्य भावना में ढाल दिया, अपनी तीन बहिनों को भंवर पड़ने से पहिले ही अपनी धारा में मोड़ दिया। एक भाई को युवावस्था में ब्रह्मचर्य व्रत दिला दिया और अपनी माँ को उसकी वृद्धावस्था में अपने पास खींच लिया। कितनी अटूट श्रद्धा है भगवान महावीर के वैराग्य मार्ग पर । ऐसा उदाहरण भारतीय जीवन में खोजने से भी नहीं मिलेगा।
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