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________________ ५८] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला का जीवनवृत्त है, जिसने अपने समय में जन-जन में धार्मिक भावनाओं को जाग्रत किया है। स्त्रीपर्याय को प्राप्त होकर भी आप बाल्यकाल से ही इन्द्रिय विषयों से विरक्त हो गईं, मानो आपने कलियुग को चैलेञ्ज दिया था कि भले ही संसार के जीव तुझसे प्रभावित रहें, लेकिन मैं अपने ऊपर तेरे प्रभाव का कोई असर नहीं होने दूंगी। युग की आदि में ब्राह्मी और सुन्दरी ने जो करके दिखाया, युग के अन्त में वही ज्ञानमतीजी ने करके बताया। ब्राह्मी-सुन्दरी का युग प्रथम तीर्थंकर ऋषभनाथ का युग था और ज्ञानमती जिनका जन्म का नाम मैना था, उनका युग भगवान् महावीर तीर्थंकर का युग है। पू० माताजी ने जब क्षुल्लिका दीक्षा ली तब आपका नाम “वीरमती" रख दिया, मानो इस नाम की प्रेरणा भगवान् महावीर से ही मिली हो। इसके बाद माताजी ने आर्यिका दीक्षा ली, तब आपका नाम 'ज्ञानमती' रखा गया। इस नाम के साथ ही पू० माताजी ने ज्ञान (सरस्वती) की उपासना प्रारंभ कर दी। पू० माताजी का स्वाध्याय और अध्ययन इतना वृद्धिंगत हुआ मानो सरस्वती स्वयं ही आकर उनके हृदय में विराजमान हो गई। साध्वी जगत् में विद्वत्ता के नाते आज माताजी का सर्वश्रेष्ठ स्थान है। व्याकरण, साहित्य, दर्शन, छन्द आदि शास्त्रों का आपको तलस्पर्शी ज्ञान है। आपके प्रवचन बड़े प्रभावक एवं मधुर होते हैं। आप हिन्दी, संस्कृत, प्राकृत, कन्नड़ आदि अनेक भाषाओं की पारंगत विदुषी हैं। आपने अपनी ज्ञान गरिमा से अनेक त्यागियों, साध्वियों एवं श्राविकों का उपकार किया। प्राचीन काल में जो साहित्य लिखा गया वह या तो आचार्य रचित है अथवा साधु और विद्वानों के द्वारा रचित है- किसी स्त्री या साध्वीकृत कोई रचना या ग्रन्थ उपलब्ध नहीं। माता ज्ञानमतीजी ने अपनी बौद्धिक प्रतिभा से जो आर्ष ग्रंथों की रचना की है, वह तो अद्वितीय ही है, लेकिन संस्कृत में भी बहुत सुन्दर रचनाएँ की हैं। आपने पू० आचार्य कुन्दकुन्द रचित नियमसार की संस्कृत टीका लिखी है, वह बहुत ही सुन्दर है। संस्कृत कविताएँ लिखने में भी आपकी अपूर्व प्रतिभा काम करती है। महिलाओं द्वारा ग्रन्थ रचने का युग माता ज्ञानमतीजी से ही प्रारंभ हो रहा है, तदनुसार अन्य पूज्य आर्यिकाओं ने भी ग्रन्थों की रचना प्रारंभ की है। नियमसार ग्रन्थ की टीका के पहले आपने मूलाचार ग्रन्थ की सुन्दर हिन्दी टीका की है। आपने इन्द्रध्वज विधान, कल्पद्रुम विधान, तीनलोक विधान, पंचपरमेष्ठी विधान, ऋषिमण्डल विधान, शांतिनाथ पूजा विधान, जिनगुण सम्पत्ति विधान आदि पूजा ग्रन्थों की भी रचना की है, जिससे आज विधिविधान कराने का मार्ग सरल हो गया है। बच्चों की जैन धर्म संबंधी प्रारंभिक शिक्षा के लिए आपने बाल-विकास के चार भागों की रचना की है। इसके अतिरिक्त अन्य पुस्तकों का भी निर्माण किया है। इस तरह पू० माताजी का समय सदा ध्यान स्वाध्याय में ही व्यतीत होता है, इसके फलस्वरूप माताजी ने लगभग डेढ़ सौ रचनाओं को सरस्वती गंगा की ओर प्रवाहित किया तथा माताजी की कृपा से इस्तिनापुर में त्रिलोक शोध संस्थान नाम की संस्था लम्बे अर्से से काम कर रही है। इस संस्था द्वारा उक्त साहित्य सृजन के साथ एक सम्यग्ज्ञान मासिक पत्रिका भी प्रकाशित होती है। पत्रिका में प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग, द्रव्यानुयोग, संबंधी सभी प्रकार की सामग्री रहती है, जिसे पूज्य माताजी सँजोती हैं। अध्ययनार्थी छात्रों तथा स्वाध्याय प्रेमियों के लिए इस दृष्टि से यह पत्रिका भी बहुत उपयोगी है। इसी संस्था के अन्तर्गत एक संस्कृत विद्यापीठ भी गतिशील है, जिसमें बालकों को धार्मिक शिक्षा दी जाती है। मुझे विश्वास है कि माताजी के आशीर्वाद से यह विद्यालय कभी विश्वविद्यालय का रूप भी धारण कर सकता है। इस संबंध में परम पूज्य आचार्य धर्मसागरजी महाराज भी अपना अभिमत प्रकट कर चुके हैं कि आज एक जैन विश्वविद्यालय की आवश्यकता है। अच्छा है कि हम पूज्य आचार्य श्री के इस अभिमत को इसी हस्तिनापुर के विद्यापीठ को आधार बनाकर विश्वविद्यालय की कल्पना को साकार करें, माताजी का सान्निध्य इस विद्यालय के लिए और भी वरदान सिद्ध होगा। हस्तिनापुर जम्बूद्वीप का स्थल द्रव्य, क्षेत्र,काल, भाव आदि सभी प्रकार से उपयुक्त है। युग के आदिकाल से ही इस भूमि को आदि ब्रह्मा ऋषभनाथ की गोचरी वृत्ति का आशीर्वाद प्राप्त है और अब युग के अन्त में पू० गणिनी माता ज्ञानमतीजी का आशीर्वाद प्राप्त रहेगा। पूज्य माता ज्ञानमतीजी की धर्मप्रभावना का यहीं अन्त नहीं होता, बल्कि वे प्रतिदिन ही सम्यग्ज्ञान की उपासना के आधार पर स्वयं भी धर्मप्रवचन करती हैं। स्थानीय लोग तथा आगन्तुक तीर्थयात्री भी माताजी की देशना को बड़े ध्यान से सुनते हैं, अपनी शंकाओं का समाधान करते हैं और धर्मलाभ लेते हैं, महिलाएँ तो माताजी को अपना आदर्श मानकर उनकी खूब पूजा तथा चरण-स्पर्श कर भक्ति करती हैं। इस सबके अतिरिक्त समय-समय पर यहाँ सेमिनार, व्याख्यान, प्रवचन, कलशाभिषेक आदि धार्मिक उत्सव जनसाधारण मनाते हैं, जिसमें माताजी के भी दर्शनों की अभिलाषा से अनेक श्रद्धालुओं की भारी भीड़ इकट्ठी हो जाती है। सच बात तो यह है कि माताजी चलती-फिरती तीर्थ की साकार मूर्ति हैं। पिछले तीन दशकों में जैसी धर्मप्रभावना माताजी के द्वारा हुई है वैसी अन्य किसी से नहीं हुई है। पूज्य माताजी का दूसरा बड़ा काम तो जम्बूद्वीप का निर्माण है। गत शताब्दियों में जिसके बारे में किसी ने कुछ सोचा ही नहीं था कि जम्बूद्वीप का कोई साकार रूप भी बन सकता है। इस जम्बूद्वीप के निर्माण में जितनी विघ्न-बाधाएँ माताजी के सामने आई वह माताजी ही जानती हैं। महापुरुषों की यही प्रवृत्ति है या तो वे किसी कार्य को प्रारंभ नहीं करते हैं, करते हैं तो उसे पूरा किये बिना नहीं छोड़ते। इस संबंध में नीतिकारों ने एक सुन्दर Jain Educationa international For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012075
Book TitleAryikaratna Gyanmati Abhivandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Jain
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1992
Total Pages822
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size26 MB
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