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________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमतीजी - श्रमणसंघीय सलाहकार श्री ज्ञानमुनिजी महाराज हमारी दिगम्बर परम्परा ने बड़े-बड़े तेजस्वी और तपस्वी महापुरुष पैदा किये हैं। आज मैं आपके सामने ज्ञान चारित्र की महान् आराधिका आर्यिका श्री ज्ञानमतीजी के वैराग्य का परिचय कराने लगा हूँ। ज्ञानगर्भित वैराग्य-श्री स्थानांग सूत्र के तृतीय स्थान में वैराग्य के तीन प्रकार लिखे हैं; जैसे-१. ज्ञानगर्भित वैराग्य २. मोहगर्भित वैराग्य ३. दुःखगर्भित वैराग्य जीवन में जब ज्ञान की ज्योति जगमगाने लगती है, संसार का वैभव अनित्य एवं अशरण दिखने देने लगता है, संसार के दुःख झूठे और निस्सार दुःखों के महास्तोत्र अनुभव में आने लगते हैं तथा आध्यात्मिक सुख सर्वोच्च सर्वोपरि सच्चा और शाश्वत सुख दृष्टिगोचर होता है। तब व्यक्ति घर, माता-पिता, भाई-बन्धु सबको छोड़कर संयम साधना के महापथ पर चलना आरंभ कर देता है यही ज्ञानगर्भित वैराग्य माना जाता है। कई बार जब माता या पिता, भाई या बहन या बेटा साधु जीवन को अंगीकार कर लेता है, साधक जैन साधना के कठोर पथ पर चल पड़ते हैं उस स्थिति में पिता को देखकर बेटा साधु बनते हैं या बेटी को देखकर माता आर्यिका बनती है इसी वैराग्य को मोहगर्भित वैराग्य कहते हैं। श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार जम्बूकुमार जब साधु बनने लगते हैं तो उनके मोह में आकर उनके माता-पिता, नारी-वृन्द, श्वसुर आदि सब साधु जीवन-चर्या धारण कर लेते हैं, भले ही आगे चलकर मोह-वैराग्य, ज्ञान वैराग्य में परिवर्तित हो जाता है। तथापि वैराग्य की पूर्व भूमिका को निहारते हैं तो यह वैराग्य मोहगर्भित दृष्टिगोचर होता है। मानव जब दुःखों की ज्वालाओं से दग्ध हो जाता है, उसे जीवन निर्वाह का कोई सहारा दिखायी नहीं देता, आशाओं के दीपक टिमटिमाने लगते हैं, उस समय व्यक्ति प्रभुभजन की ओर अग्रसर होता है। साधु जीवन को भी अंगीकार कर लेता है। जैन शास्त्र ऐसे विरक्त व्यक्ति के वैराग्य को दुःखगर्भित वैराग्य कहते हैं। श्री भगवद्गीता में भी भक्तों के चार प्रकार बताए हैं-१. अति-दुःखी, २. जिज्ञासु, ३. धन का पुजारी, ४. ज्ञानी। हमारी मान्या आर्यिका श्री ज्ञानमतीजी का माहगर्भित या दुःखगर्भित वैराग्य नहीं है। इनका वैराग्य विशुद्ध ज्ञानगर्भित वैराग्य ही प्रमाणित होता है; क्योंकि इन्होंने बचपन में, पद्मनन्दि पञ्चविंशतिका नामक ग्रंथ का अध्ययन किया था। उसी ग्रंथराज के स्वाध्याय ने इनके मानस में वैराग्य पैदा कर दिया। वास्तव में ज्ञानगर्भित वैराग्य ही सच्चा वैराग्य होता है। यही वैराग्य मानव को महामानव, नर को नारायण और इंसान को भगवान के समुच्च सिंहासन पर आसीन कर देता है। ज्ञानगर्भित वैराग्य के आलोक में ही ये उन्नति के क्षेत्र में धीरे-धीरे बढ़ने लगीं। आर्यिका बन जाने के अनन्तर इन्होंने भारत यात्रा की, साहित्य का निर्माण किया, संस्कृत भाषा में ग्रंथ बनाए। संस्कृत में स्तुतियां लिखीं, मौलिक ग्रंथों की रचना की, धार्मिक उपन्यास लिखे, बाल-साहित्य की रचना करके बालकों के लिए स्वाध्याय का मार्ग खोला। इस तरह प्रगति के चरण आगे ही आगे बढ़ते चले गये। श्री जम्बूद्वीप का निर्माण कराया। ८४ फुट ऊँचे सुमेरु का निर्माण करवाया। इस तरह सामाजिक और आध्यात्मिक क्षेत्र में आर्यिका श्री का ही योगदान सचमुच बड़ा अभिनन्दनीय और सराहनीय रहा। मैं उनके दीर्घ जीवन की मंगलकामना करता हूँ। मंडी गोविन्दगढ़ ज्ञान की सरिता ज्ञानमती .- आर्यिका श्री श्रेयांसमती माताजी मुझे अत्यंत खुशी हुई कि परमपूज्यगणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी का अभिनंदन ग्रंथ निकालने की योजना बनी है; क्योंकि इससे जिन-जिन व्यक्तियों को माताजी के प्रति अपनी श्रद्धा-भक्ति है उन-उन सभी को अपने भाव व्यक्त करने का एक अवसर मिल गया। वास्तव में पूज्य माताजी के अत्यंत उपकार अपने परिवार, सम्पूर्ण नारी समाज के साथ-साथ सम्पूर्ण जैन समाज पर भी हैं, जिसका ऋण किसी प्रकार भी चुकता नहीं हो सकता। परिवार पर उपकार इस कारण से हुए हैं कि उन्होंने अपने साथ-साथ अपने भाई-बहनों को व माता को धर्ममार्ग पर लगाया, जिसके कारण रत्नमती, अभयमती, चंदनामती माताजी बनीं। एक भाई रवीन्द्र कुमार शास्त्री बनकर साथ-साथ में आज ब्र० सप्तम प्रतिमाधारी बने और बहुत-सा Jain Educationa international For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012075
Book TitleAryikaratna Gyanmati Abhivandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Jain
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1992
Total Pages822
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size26 MB
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