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वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला
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शंभुछंदश्री सिद्धक्षेत्र सिद्धवरकूट के निकट सनावद नगरी है। श्री गुरुओं की पावन पदरज पाती रहती यह नगरी है। सन् उन्निस सौ सड़सठ में माता ज्ञानमती जी आई थीं। निज संघ आर्यिका सहित ज्ञान की उज्ज्वल ज्योति जलाई थी॥ १५ ॥
इस चातुर्मास काल में दो शिष्यों का उनको लाभ मिला। ब्रह्मचारी मोतीचंद तथा यशवंत कुमार का भाग्य खिला ॥ जैसे जन्ती से खींच खींच कर तार निकाला जाता है।
यूं ही गृह जन्ती से गुरु द्वारा शिष्य निकाला जाता है ॥ १६ ॥ निज कठिन परिश्रम के द्वारा दोनों को संग में ले आई। इक कुशल शिल्पि की कला ज्ञानमति माताजी ने दर्शाई ॥ जिनधर्म की घंटी पिला-पिला यशवन्त को मुनिवर बना दिया। श्री धर्मसिन्धु के करकमलों से उनको दीक्षा दिला दिया ॥ १७ ॥
मोतीचंदजी ने मातृभक्ति गुरुभक्ति जगत को दिखलाई। हस्तिनापुरी की वसुन्धरा ने तभी अमिट रचना पाई ॥ प्रतिकूल तथा अनुकूल सभी अवसर पर गुरु के संग रहे।
इस कर्मभूमि के इसीलिए ये प्रथम कीर्तिस्तंभ रहे ॥ १८ ॥ इस ज्ञानज्योति की प्रभा देख इतिहास याद आ जाता है। दो सहस वर्ष लगभग का घटनाक्रम स्मृति में आता है। धरसेन गुरु के पुष्पदन्त अरु भूतबली दो शिष्य बने । सिद्धान्त ग्रन्थ की परम्परा अक्षुण्ण बनाने हेतु चले ॥ १९ ॥
यूँ ही माँ ज्ञानमती के मोतीचंद रवीन्द्र दो शिष्य बने। इस जम्बूद्वीप की रचना में ये दोनों कीर्तिस्तम्भ बने ॥ माँ की भक्ती में उभयसमर्पण चिर इतिहास बनाएगा।
सूरज चन्दा सम इनका श्रम दिनरात बताया जाएगा ॥ २० ॥ लाती हूँ अपना विषय पुनः था ज्ञानज्योति का रथ आया। मोतीचंदजी की जन्मभूमि पर महामहोत्सव मनवाया । था तीन दिनों का कार्यक्रम अतिथी बहुतेक पधारे थे। शास्त्री परिषद औ महासभा के नेता सभी पधारे थे॥ २१ ॥
संस्थान हस्तिनापुर से मंत्री श्री रवीन्द्रजी भी पहुंचे। कितने पदाधिकारी दिल्ली कोटा आदी से भी पहुँचे ॥ अधिवेशन सब संस्थाओं के दो दिन तक हुए सनावद में।
शास्त्री परिषद के नये चुनाव हुए महामंत्री नये बने ॥ २२ ॥ लम्बे विश्राम के बाद यहाँ श्रीजमादारजी आए थे। अपने महामंत्री पद पर श्री श्रेयांस कुमार को लाए थे।
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