SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 167
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गणिनी आर्यिकारत्र श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ माताजी सर्वप्रथम आर्यिकारत्न हैं, जो सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्यान और सम्यक्चारित्र के कल्याणकारी माध्यम से सभी वर्गों, सभी जातियों, सभी देशों के मनुजों से सहज ही जुड़ी हुई हैं। आपके अनेक भक्त विदेशों में हैं। बालक, वृद्ध और युवा, असंख्य नर-नारी आपके द्वारा दिये दृष्टान्तों में अपनी अन्तरात्मा की गूँज सुनते हैं, क्योंकि आपके उपदेश अनेकान्तमय हैं, सार्वभौम और सार्वकालिक हैं। माताजी के परम पुनीत, निर्मल, निष्काम संदेशों और जीवन-दर्शन से असंख्यात भक्त प्रेरणा ग्रहण करते हैं। माताजी ने अपने अभीक्ष्ण ज्ञान साधना से आगमों का गहन, गंभीर चिन्तन किया है और उनको सरल भाषा देकर जन-जन के लिए उपलब्ध कराया है। अनेक दुर्लभ ग्रन्थों की टीकाएँ भी की है। आपकी प्रेरणा से ज्ञानज्योति के प्रवर्तन ने सारे देश में, नगर-नगर, डगर-डगर में जैन धर्म के उपदेशों को ध्वनित और प्रतिध्वनित किया है। हस्तिनापुर में जम्बूद्वीप की रचना आपकी सृजनात्मक कल्पनाशक्ति की ही प्रतिकृति है, जो आपके दृढ़ संकल्प और अत्यन्त दृढ़ नींव पर आधारित है। आज त्रिलोक शोध संस्थान जैन दर्शन और जैन अध्ययन के लिए अन्तर्राष्ट्रीय केन्द्र का रूप लेता जा रहा है। ऐसी अनेक उपलब्धियों की सर्जन प्रतिमा के चरणों में मेरे अनेक प्रणाम । [१४१ माताजी की शिक्षण व्यवस्था स्तुत्य Jain Educationa International है - • जयकुमार जैन छाबड़ा एडवोकेट, जयपुर परम पूज्या आर्यिका रत्न १०५ श्री ज्ञानमती माताजी का जन्म टिकैतनगर ग्राम में धार्मिक विचारों से ओत-प्रोत परिवार में हुआ। पूज्या माता श्री रत्नामतीजी आर्थिका होकर वंग पधार गई। छोटी बहिन श्री १०५ श्री अभयमती माताजी आज भी गाँव-गाँव, शहर शहर में जैनधर्म के प्रचार में रत हैं। स्वयं के जीवन को उन्नत करने के साथ जनसाधारण के जीवन में धार्मिक विचारधारा उन्नत करने में लगी हैं। पूज्या माताजी ज्ञानमतीजी का सबसे पहले दर्शन का सौभाग्य मुझे जयपुर नगर के खानियां अतिशय क्षेत्र में हुआ था। वह वहाँ आचार्य श्री देशभूषणजी महाराज के संघ में चातुर्मास में थीं। चातुर्मास के दौरान ही एक दिन अकस्मात् जम्बूद्वीप की चर्चा हो गई। उनके भाषण में उस दिन भारी संख्या में लोग उपस्थित थे, उन्होंने लोगों को जम्बूद्वीप के बारे में विस्तार से बताया और कहा- अगर साधन उपलब्ध हों तो ग्रन्थानुसार जम्बूद्वीप का निर्माण पृथ्वी स्थल पर कराया जा सकता है, जो अपूर्व होगा। मैंने माताजी से कहा— भूमि हमारे पास उपलब्ध है। आप जैसा चाहे निर्माण करायें बनाने के लिए धनराशि की भी कमी नहीं होगी। माताजी ने शीघ्र ही भूमि देखने के लिए दिन निश्चित किया भूमि देखी और उन्हें पसन्द भी आ गई। भूमि जयपुर जमवारामगढ़ रोड पर पानी की टंकी के सामने, संघीजी की नाशियां में थी । , निर्माण कार्य हेतु नक्शे आदि बनाने का निर्णय हुआ और शीघ्र ही कार्य प्रारम्भ करने हेतु मुहूर्त निश्चित करने का तय हुआ। मुहूर्त नहीं निकल पाया कि पू० माताजी को संघ के साथ जयपुर से अजमेर ब्यावर की ओर विहार करना पड़ा और इस तरह जयपुर में जम्बूद्वीप रचना का कार्य प्रारम्भ नहीं हो सका। माताजी ने स्वयं ही हस्तिनापुर में रहकर निर्माण कार्य प्रारम्भ किया। जिसे आज देश-विदेश के हजारों दर्शनार्थी देखने आते हैं और उसकी रचना को देखकर स्तब्ध हो जाते हैं हस्तिनापुर भूमि, जहाँ कई कल्याणक हुए, विद्वान् वीर पैदा हुए, प्रसिद्ध महाभारत के कौरव-पाण्डवों का निवास स्थान था, इस क्षेत्र में ही जम्बूद्वीप का अद्वितीय निर्माण हुआ है। गत वर्ष मैं व्यक्तिशः दर्शनार्थ गया था। पूज्या माताजी स्वाध्याय में रत थीं। थोड़ी देर दूर ही खड़ा रहा। इतने में ही पू० माताजी की दृष्टि पड़ी। उन्होंने तत्काल आवाज देकर बुला लिया। वह बोलीं- "बाहर क्यों खड़े रहे ? बैठिये !" चर्चा के दौरान पूज्या माताजी को जयपुर स्थित श्री पार्श्वनाथ चूलगिरि अतिशय क्षेत्र की याद आई और उन्होंने अतिशय क्षेत्र के बारे में जानकारी चाही। कैसी स्थिति है वहाँ की जयकुमार जी ! अब भी वहाँ का काम देखते हो या नहीं। पूज्य आचार्य श्री देशभूषणजी महाराज के आशीर्वाद से आपने जो चूलगिरि का निर्माण कराया है, वह अत्यन्त प्रशंसनीय है। भगवान् आपको शतायु करें। इस प्रकार धार्मिक कार्यों में जुटे रहो। अब हस्तिनापुर में रहना आरम्भ करो। वृद्धावस्था आ गई है। परिवार के साथ धर्म लाभ उठाओ। मैंने पूज्या माताजी से निवेदन किया कि आपका आशीर्वाद फले, यही मेरी प्रार्थना है। पूज्या माताजी द्वारा क्षुल्लक, क्षुल्लिकाओं, मुनिराजों को धार्मिक शिक्षा दी गयी है और आज भी कई शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं। इस कलिकाल में इस प्रकार जो जैनधर्म का प्रचार कर रही है ऐसी हमारी परम पूज्या १०५ आर्यिका माताजी शतायु हों, ऐसी भगवान् महावीर से प्रार्थना है। उनको मेरा शत शत वन्दन । For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012075
Book TitleAryikaratna Gyanmati Abhivandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Jain
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1992
Total Pages822
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy