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________________ ४७४] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला कुन्दकुन्द का भक्ति राग समीक्षिका-डॉ० नीलम जैन, देहरादून - कली का रंग जब भीतर सिमट नहीं पाता उसकी गन्ध जब बाँधे नहीं बंधती और उसका मकरन्द जब हल्का-हल्का फूट पड़ता है तो वह पुष्प बन जाती है। नन्हें-नन्हें बीज धरती का वक्षस्थल फोड़कर अंकुरित होते हैं। देखते ही देखते दूर-दूर तक हरी-भरी फसल लहलहाने लगती है। पर्वत के हृदय में बसी सजल करुणा पत्थर तोड़कर बह निकलती है। पूर्व दिशा में बूंघट उठाकर उषा सुन्दरी झांकती है तो पक्षियों का उल्लास कलवर बनकर फूट पड़ता है। प्रकृति में सर्वत्र यही दिखाई देता है। हर वस्तु अपने अन्तस का सब कुछ बाहर व्यक्त करने को उद्यत है। इसी उदात्त भाव ने जब मानव को प्रेरित किया तो विविध कलाओं का जन्म हुआ। इन कलाओं एवं भावनाओं का सिरमौर है साहित्य । साहित्य में मानव स्वयं को, स्वयं के जीवन को एवं सम्पूर्ण युग को अभिव्यक्ति प्रदान करता है। मानव प्रगति के लिए, सामाजिक उत्थान के लिए साहित्य दर्पण भी है, दीपक भी है। भावी दिशा निर्देशन के लिए वह दीपक होता है, उसकी गुत्थियों को सुलझाने और समस्या का समाधान करने के लिए वह प्रतिबिम्ब का कार्य करता है। ऐसा ही युगीन कालजयी साहित्यकार युगों-युगों तक आराध्य रहते हैं। मानवीय प्रकृत्यानुसार साहित्य के अनेक वर्ग और विधा हो जाती है; सामाजिक, धार्मिक या लौकिक-पारलौकिक । भारत में सभी प्रकार का साहित्य प्रचुरता में उपलब्ध है। अहर्निश जिन्होंने आत्मकल्याण की साधना की एवं संसारी प्राणियों को भी सच्चे सुख का प्रशस्त मार्ग बताया, धर्म का सत्य रूप समाज के सम्मुख रखा, भटकते मानव को स्थिर एवं समीचीन राह दिखाई। आज से २००० वर्ष पूर्व ज्ञान चक्र प्रर्वतक [भगवान महावीर की परम्परा के सच्चे संवाहक, तपोनिधि कलिकालसर्वज्ञ तरण-तारण ऋषिवर, साधु हुए आचार्य कुन्दकुन्द.] जैन परम्परा भगवान महावीर के साथ समाप्त नहीं हुई, अपितु गुरु-शिष्य के मध्यगत होती हुई विद्यमान रही। भगवान महावीर के मुख्य गणधर थे गौतम स्वामी । आपने भगवान महावीर के केवलज्ञान को स्वयं में समाहित किया तदुपरान्त श्रुतकेवली के पंचाचार्यों ने इसे सुनकर ज्यों का त्यों जाना। तदनन्तर सम्पूर्ण ज्ञान को लिपिबद्ध किया गया, जिससे भावी पीढ़ी भी इस ज्ञान को सुरक्षित ग्रहण कर सके। इस परम्परा में आचार्य धरसेन, भूतबलि एवं पुष्पदन्त आचार्य के बाद आचार्य कुन्दकुन्द देव ने इस परम्परा के संरक्षण में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया तथा शास्त्रों को व्यवस्थित ढंग से लिपिबद्ध किया। आपकी प्रमुख रचनाएं हैं- 'समयसार', 'प्रवचनसार', 'रयणसार', 'अष्टपाहुड़', 'नियमसार' 'पंचास्तिकाय' आदि फुटकर रचनाएं भी प्राप्त होती है आपने भक्ति के दो मागों निश्चय और व्यवहार को पूर्ववत् श्रेद्धय माना है। हमारा निश्चय, दृढ़ श्रद्धान जब तक तथानुरूप आचरण नहीं करेगा तब तक हम अभीष्ट ध्येय को प्राप्त नहीं कर सकते हैं। इस संदर्भ में व्यवहार पद्धति की एक फुटकर रचना है। आपकी लेखनी से प्रस्फुटित भक्तियाँ-भक्ति में समर्पण भाव प्रधान होता है। भक्त भगवान से तदाकार होकर ही अपना जीवन सार्थक मानता है। भक्ति उन आराध्य देव की होती है, जिनके अनुरूप बनना मानव जीवन का लक्ष्य है। इसीलिए धार्मिक साहित्य में भक्ति रचनाओं को भी परम स्थान प्राप्त है। जैन आचार्यों ने "राग" को यद्यपि बन्धन का कारण कहा, किन्तु वीतरागी में किया गया राग परम्परा से मोक्ष देता है। इसीलिए केवल ज्ञानी गौतम गणधर द्वारा रचित 'चैत्य भक्ति' "वीर भक्ति" भी उपलब्ध हैं तो आचार्य कुन्दुकुन्द देव द्वारा रचित सिद्ध, श्रुत, चारित्र, योग, आचार्य, तीर्थकर, पंचगुरु एवं निर्वाण भक्ति । आचार्यप्रवर पूज्यपादकृत भक्तियां भी परवर्ती आचार्यों ने भी भक्तिरस में अनेक भावनाएं प्रवाहित की। ये भक्तियां आचार्यों ने युगीन भाषा में लिखी थीं। यथा प्राकृत, संस्कृत आदि । चूँकि इन भक्तियों में अभूतपूर्व दर्शन, आत्मा और परमात्मा का समन्वय, सर्वोत्कृष्ट शान्त भाव तथा भक्त के अवलम्बन का मार्ग निहित है परन्तु भाषा की विषमता वर्तमान के भक्तों के आड़े आती है। इसीलिए अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोगी, परमविदुषी, गणिनी, आर्यिका पू. ज्ञानमती माताजी ने सरसपद्यानुवाद के अपने क्रम में इन भक्तियों के अनुवाद कर हम गृहस्थों को भी भक्ति करने का समीचीन मार्ग सुझाया। सरल भाषानुवाद से भाव सरलता बोधगम्य हो गए हैं। भक्तिमार्ग आसान, सीधा और सरस है । जनसाधारण के मार्ग को रुचता है। ज्ञानप्रधान जैन धर्म में उसका विधान बहुत बड़े आश्वासन की बात है।' जैन सिद्धान्त में कहा है- वीतरागी परमात्मा 'पर' नहीं "स्व" आत्मा ही है। आत्म प्रेम का अर्थ है आत्मसिद्धि, जिसे मोक्ष कहते हैं। आचार्य फूज्यवाद में 'राग' को भक्ति कहा है, किन्तु उस राग को जो अर्हन्त, आचार्य, बहुश्रुत और प्रवचन में शुद्ध भाव से किया जाय। १. हिन्दी जैन भक्ति काव्य और कवि : डा. प्रेमसागर जैन भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, पृष्ठ ७ २. सर्वार्थसिद्धि : आचार्यपूज्यपाद ६१२४ का भाष्य Jain Educationa international For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012075
Book TitleAryikaratna Gyanmati Abhivandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Jain
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1992
Total Pages822
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size26 MB
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