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गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ
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व्रत विधि एवं पूजा
समीक्षक-जयसेन जैन, संपादकः सन्पति वाणी, इंदौर
व्रत विधि एवं पूजा
आकार
जैन धर्म में व्रतों का विशेष महत्त्व है। अन्य धर्मों की तुलना में जैन धर्म के व्रतों का पालन कुछ कष्टसाध्य भी है।
इस पुस्तिका में व्रतों के ग्रहण करने की विधि, जाप्य एवं उनसे संबंधित पूजाओं का उल्लेख सुंदर, उपयोगी एवं महत्त्वपूर्ण बन पड़ा है।
पुस्तिका में णमोकार महामंत्र पूजा, जिनगुण संपत्ति व्रत पूजा, रोहिणी व्रत में की जाने वाली वासुपूज्य जिन पूजा, श्री पंच परमेष्ठी पूजन एवं सप्त परम-स्थान पूजा समाविष्ट की गई है। जैन धर्म में इन पूजाओं का विशेष महत्त्व भी है। पूजन के साथ ही जाप्य मंत्र भी यथास्थान दिये गये हैं, परिणाम स्वरूप पूजन करने वालों को बड़ी सुविधा होती है।
जैसे-णमोकार मंत्र पूजन की जयमाला का शेर छंद में निबद्ध एक पद द्रष्टव्य हैइक ओर तराजू पे अखिल गुण को चढ़ाऊँ। इक ओर महामंत्र अक्षरों को धराऊँ । इस मंत्र के पलड़े को उठा न सके कोई।
महिमा अनन्त यह धरे न इस सदृश कोई ॥८॥ (पृ.८) यह है महामंत्र की महिमा । इसी प्रकार जिनगुणसम्पत्तिव्रत पूजा की जयमाला का निम्न श्लोक बरबस ही उस व्रत को करने की प्रेरणा प्रदान करता हैशंभुछंद
इस विधि से जो नरनारी गण उपवास सहित व्रत करते हैं। अथवा एकाशन से करके जिनगुणसंपति भी वरते हैं। धनधान्य समृद्धि सुख पाते चक्री की पदवी पाते हैं।
देवेन्द्र सुखों को भोग भोग तीर्थंकर भी हो जाते हैं ॥६॥ आगे रोहिणी व्रत की पूजा तो अपने व्रत संबंधी पूरे इतिहास को समेटे हुए है, जो व्रत के अतिरिक्त भी पठनीय है।
पूजन एवं व्रतों से संबंधित कथाएं भी प्राचीन पुराणों के आधार पर प्रामाणिक रूप से संदर्भ सहित दी गई हैं। जिससे व्रत धारकों को व्रत पालने में, उसका महत्त्व एवं लक्ष्य समझने में बड़ी सुविधा मिलती होगी। श्री वीर निर्वाण संवत् २५१३ में इस पुस्तिका का "पंचम" संस्करण प्रकाशित होना ही पुस्तिका का उपयोगी, लोकप्रिय एवं महत्त्वपूर्ण होना दर्शाता है।
पुस्तिका की रचयित्री पूज्य माताजी विलक्षण प्रतिभाओं की धनी हैं। उनके धार्मिक संस्कार, आचार-विचार, अध्ययन, साधना, साहित्य के प्रति समर्पण, लेखन एवं प्रवचन शैली, सभी कुछ तो श्लाघनीय एवं अनुकरणीय है। श्रमण संस्कृति की महिला साधकों में आर्यिका रत्न श्री ज्ञानमतीजी का नाम सर्वोच्च भी कहा जाये तो अतिशयोक्ति न होगी।
कहने का तात्पर्य यह है कि "व्रत विधि एवं पूजा" नामक यह पुस्तिका यथा नाम तथा गुण वाली उक्ति को सार्थक ही करती है।
भाषा-शैली सरल-सुबोध एवं रोचक है। मुद्रण शुद्ध एवं स्पष्ट है। आवरण का कागज उत्तम किस्म का तथा अन्य आतंरिक पृष्ठों का सामान्य स्तर है। प्रस्तुत पुस्तिका सस्ती, सुंदर, उपयोगी एवं महत्त्वपूर्ण है।
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