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________________ ४७२] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला पृष्ठ २४ पर प्रायश्चित' ग्रंथ के आधार से स्पष्ट किया है कि आर्यिकाओं को मुनियों के बराबर ही प्रायश्चित का विधान है। संयम ही मनुष्यावस्था की सार्थकता है, अतः पुरुष और स्त्री दोनों को ही संयम मार्ग पर चलना चाहिए, बाह्याभ्यन्तर परिग्रह का त्याग मन-वचन, काय, रूप व्यापार से निवृत्ति सो अनारम्भ, हन्द्रिय विषयों से विरक्त, कषायों का क्षय, उपशम यह संयम का स्वरूप है, जो स्त्रीपर्याय में आर्यिका के संभव है। आर्यिका जीवन ही स्त्रियों के लिए श्रेष्ठतम है। प्रस्तुत कृति में आर्यिका की चर्या का निरूपण सूक्ष्मता से किया गया है। इसमें परिग्रह रखना यहाँ दोष बताया, किन्तु जिन उपकरणों से संयम का विनाश न होता हो, ऐसे उपकरण या अन्य वस्तु को काल और क्षेत्र के अनुसार ग्रहण करने में मुनि/आर्यिका को दोष नहीं है। अतः पिच्छी कमण्डलु के अतिरिक्त पुस्तकें-चश्मा लेखनी मसि आदि आर्यिका रख सकती हैं, ऐसी प्रस्तुति न्याय संगत है। माताजी ने आर्यिकाओं की नवधाभक्ति वाले प्रकरण को सप्रमाण प्रस्तुत किया है। आहार विधि का समग्र निरूपण मूलाचार आदि ग्रंथों के आधार पर ही वर्णित है, अतः ग्रंथ की उपादेयता बढ़ गयी है। यह कृति आर्यिकाओं के लिए ही कार्यकारी है, ऐसा नहीं, किन्तु श्रावक-श्राविकाओं के ज्ञानवर्धन हेतु प्रामाणिक है। स्वाध्याय की सम्पूर्ण विधि बतायी गयी है। कुछ लोग आर्यिकाओं को सिद्धान्त ग्रंथ पढ़ने का निषेध करते हैं, उनको हरिवंश पुराण में वर्णित एकादश अंगों की धारिका सुलोचना का उद्धरण देकर आर्यिका सिद्धान्त ग्रंथों के स्वाध्याय की पूर्ण अधिकारिणी है, यह स्पष्ट कर दिया। आर्यिकाओं को भी स्वाध्याय आवश्यक है, क्योंकि जिस प्रकार बिना प्रकाश के अंधेरे में रखे हुए पदार्थों का नेत्रों को पूर्ण ज्ञान नहीं होता है, उसी प्रकार बिना शास्त्रों के रहस्य को जाने सत्यासत्य का यथार्थ परिज्ञान नहीं होता । आचार्य कुंदकुंद स्वामी ने अष्टपाहुड़ में इस पंचमकाल के भयात्माओं को संहननहीन होने से निरंतर चिन्तन व स्वाध्याय करने और मुख्यतया सर्वकाल स्वाध्याय पठन अनुप्रेक्षा धारण आदि का आधार लेने की प्रेरणा दी है। यही कारण है कि माताजी ने वर्तमान आर्यिकाओं के ज्ञान संवर्द्धन हेतु स्वाध्याय की विधि पर इस पुस्तक में विशेष प्रकाश डाला है। जो निश्चित ही महत्त्वपूर्ण है। "आर्यिका" पंचम गुणस्थानवर्ती होती है, अतः उपचार से धर्मध्यान की ध्याता होती है। ध्यान संबंधी प्रकरण को संक्षिप्त रूप से प्रस्तुत करना आवश्यक था, अतः इसमें किया भी गया है। सल्लेखना का प्रकरण संक्षिप्त लिया गया है, जिसके विस्तार की अपेक्षा थी, क्योंकि सल्लेखना या समाधिमरण ही पंचमकाल में कल्याणकारी है। सम्पूर्ण जीवन संयमपूर्वक बीतने पर भी योग्य समाधिमरण से कुछ प्राणी वंचित रह जाते हैं। . इसमें स्त्रीमुक्ति निषेध प्रकरण को निरपेक्ष दृष्टि से प्रस्तुत किया है। आर्ष ग्रंथों के विविध उद्धरणपूर्वक स्त्रीमुक्ति निषेध करना इसकी विशिष्टता है। आर्यिकाओं के साथ क्षुल्लिका या श्राविका की क्रियाओं का संक्षिप्त वर्णन, ऐतिहासिक आर्यिकाओं का जीवन परिचय आदि की प्रस्तुति इसकी विविधता सूचित करती है। माताजी ने यह लघु कृति सिद्धान्त सम्मत वर्णन से महान् बना दी है। आर्यिका चर्या जानने के इच्छुक भव्यात्माओं के लिए यह सर्वश्रेष्ठ ग्रंथ है। किसी भी ग्रंथ की उपादेयता, उस ग्रंथ की लोकप्रियता पर विशेष निर्भर होती है। जो ग्रंथ विद्वान् तथा अविद्वान् दोनों को समान रूप से प्रिय होते हैं, वही ग्रंथ प्रशंसनीय होता है और उसी की उपादेयता मान्य होती है। आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी द्वारा लिखित यह “आर्यिका" नामक आर्यिका चरित्र प्रकाशिका निश्चित ही उपादेय है। जिन्होंने सिद्धान्त का उत्तम प्रकार से अभ्यास किया है, ऐसी आर्यिका रत्न श्री ज्ञानमतीजी का ज्ञान सूर्य की किरणों के समान निर्मल है। अतः सिद्धान्त के आलोक में आर्यिका की समस्त क्रियाओं का वर्णन अनुपम है। मुनि हो या आर्यिका क्रियाएं तो आवश्यक ही हैं, क्योंकि जब तक आत्मा के साथ पुद्गलों का संयोग रहता है, तब तक क्रियाएं रहती हैं। पात्रता और विशुद्धि के आधार पर क्रियाओं में विशिष्टता आती जाती है। . आर्यिका जीवन दर्शिका यह कृति महत्त्वपूर्ण है। मौलिकता के कारण सबके आकर्षण और अध्ययन की विषय बनी हुई है। इसका स्वतंत्र अस्तित्व है। आधुनिक प्रस्तुति, निर्दोष छपाई और उचित मूल्य के कारण भी इसकी श्रेष्ठता है। १. साधूनां यद्वदुद्दिष्टमेवमार्यागणस्य च । दिनस्थानत्रिकालीनं प्रायश्चितं समुच्यते ॥११४ ॥ जैसा प्रायश्चित साधुओं के लिए कहा गया है, वैसा ही आर्यिकाओं के लिए कहा गया है, विशेष इतना है कि दिनप्रतिमा त्रिकालयोग चकार शब्द से अथवा ग्रंथान्तरों के अनुसार पर्यायच्छेद (दीक्षाच्छेद) मूलस्थान तथा परिहार के प्रायश्चित भी आर्यिकाओं के लिए नहीं हैं। २. द्वादशांगधरोजातः क्षिप्रं मेघेश्वरो गणी। एकादशांगभृज्जाता सार्यिकापि सुलोचना ।।हरिवंश पृ. २१३॥ Jain Educationa international For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012075
Book TitleAryikaratna Gyanmati Abhivandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Jain
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1992
Total Pages822
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size26 MB
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