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________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [४७१ अर्थ-जो इंद्रियों के विषयों से तथा त्रस स्थावर जीवों की हिंसा से विरक्त नहीं है, किन्तु जिनेन्द्रदेव द्वारा कथित प्रवचन का श्रद्धान करता है, वह अविरत सम्यग्दृष्टि है। श्रावक की ग्यारह प्रतिमाओं में प्रथम दर्शन प्रतिमाधारी को भी जीवकांडसार के पृ. २६ के अंतिम पैरा में पांचवां गुणस्थान वाला बताकर चतुर्थ गुणस्थान वाले सम्यग्दृष्टि एवं दर्शन प्रतिमाधारी जीव का भेद माताजी ने रेखांकित किया है। शायद कुछ लोग दूसरी प्रतिमा से पाँचवां गुणस्थान मानते हैं। ऐसे लोग आचार्य कुंदकुंद के अष्टपाहुड़ के चारित्रपाहुड़ की गाथा २२ देखकर माताजी के कथन से संतुष्ट हो सकते हैं। संयम हेतु प्रेरणा भी माताजी ने कई स्थानों पर दी है । जीवकांडसार के आठवें अध्याय के उपसंहार के रूप में पृष्ठ ७४ पर माताजी लिखती हैं "यद्यपि यह काय मल का बीज और मल की योनिस्वरूप अत्यन्त निंद्य है, कृतघ्न सदृश है, फिर भी इसी काय से रत्नत्रय रूपी निधि प्राप्त की जा सकती है, अतः इस काय को संयम रूपी भूमि में बो करके मोक्ष फल को प्राप्त कर लेना चाहिए । स्वर्गादि अभ्युदय तो भूसे के सदृश स्वयं ही मिल जाते हैं। इसलिए संयम के बिना एक क्षण भी नहीं रहना चाहिए।" इस पैरा में माताजी ने स्वर्गादि अभ्युदय को भूसे के सदृश बनाकर आत्म तत्त्व एवं आश्रव तत्त्व को यथास्थान प्रदान किया है। कुल मिलाकर ये ग्रंथ अत्युपयोगी हैं । माताजी के ये ग्रंथ आगामी कई वर्षों तक भव्य जीवों को लाभान्वित करते रहेंगे एवं शांति प्रदान करते रहेंगे। आर्यिका समीक्षक-डॉ. श्रेयांसकुमार जैन, बड़ौत आर्यिका चरित्र प्रकाशिका श्रमण संस्कृति की प्रभाविका, व्याकरण, न्याय, साहित्य आदि परस्पर निरपेक्ष शास्त्रों की अधिवेत्ता सिद्धांत अध्यात्म की अधिष्ठात्री बहुमुखी प्रतिभा की. मान्य व्यक्तित्व आर्यिकारत्न १०५ गणिनी श्री ज्ञानमती माताजी ने रत्नत्रयाराधक दिगम्बर जैनाचार्यों द्वारा रचित आचार संबंधी ग्रंथों के आधार पर “आर्यिका" नामक ७८ पृष्ठीय पुस्तक लिखी है। इसमें उपचार महाव्रतिका आर्यिका माताओं की समग्र चर्या सरलतम शब्दों में वर्णित है। यह आर्यिकाओं एवं क्षुल्लिकाओं के लिए अपनी निर्दोष चर्या पालन हेतु सुंदर निर्देशिका है। श्रावकों को आर्यिका चरित्र का परिज्ञान इसके माध्यम से सरल रीति से होना निश्चित है। प्रस्तुत कृति दिगम्बर परम्परा की साध्वी "आर्यिका" के समग्र जीवन दर्शन को उपस्थित करने वाली श्रेष्ठतम रचना है। यह जनसामान्य की भाषा में लिखी गयी कृति आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी के व्यक्तित्व की परिचायिका है। आर्यिकाओं की सम्पूर्ण क्रियाओं की विस्तार के साथ इसमें जो प्रस्तुति है, वह माताजी के स्वयं का जीवनदर्शन भी है। इस कृति का मूल उद्देश्य नारियों को यह बताना है कि नारियां भी चेतना के ऊर्ध्वारोहण में कैसे बढ़ सकती हैं, नारियों का सर्वश्रेष्ठ पद क्या है? उस सर्वश्रेष्ठता को कैसे प्राप्त किया जा सकता है? स्त्रीपर्याय की सर्वश्रेष्ठ अवस्था “आर्यिका" जीवन है। इसका स्वरूप क्रिया आदि जानने के लिए कृति का संक्षिप्त अनुशीलन प्रस्तुत है। जैन दर्शन के ध्रुव सिद्धान्त धर्म की अनादिनिधन अवस्था की स्थापना करते हुए जिन और जैन शब्दों की व्युत्पत्ति प्रस्तुत कर वैराग्यभावना का चिन्तन उपस्थित किया गया है। जिसके मन में वैराग्य सागर हिलोरें ले रहा हो, ऐसी भव्यात्मा नारी संसार शरीर भोगों से विरक्त होकर मुनि संघ में प्रवेश कर जब प्रधान आर्यिका के पास पहुँचती है। गणिनी आर्यिका उसका परीक्षण/निरीक्षण कर आचार्य श्री के पास अपने साथ उस नव वैराग्यवती को लेकर पहँचती हैं और दीक्षा प्रदान करने का निवेदन करती हैं। दीक्षा संबंधी सम्पूर्ण विधि मूलाचार, भगवती आराधना, प्रवचनसार की चारित्र चूलिका, आचारसार आदि आर्ष ग्रंथों के आधार पर ही प्रस्तुत कृति में विदुषी लेखिका ने प्रस्तुत की है। चेतना के ऊर्ध्वारोहण में नारियां किस प्रक्रिया से बढ़ सकती हैं? “आर्यिका" के व्रत आत्मविकास की चरम अवस्था नारी के लिए है। आर्यिकाएं मुनियों के समान ही मूलगुणों का पालन करती हैं। बैठकर आहार ग्रहण करना और एक श्वेत साड़ी का धारण करना इनके मूलगुणों में गर्भित है। ऐसा गुरुपदेश के आधार पर माताजी ने इसमें लिखा है। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012075
Book TitleAryikaratna Gyanmati Abhivandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Jain
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1992
Total Pages822
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size26 MB
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