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________________ ४९०] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला प्राण निकलते समय वीर! मम कठ अकुंठितं बना रहे, महामंत्र को जपते-जपते, प्रभु समाधि उत्तम होवे ॥ इस प्रकार अंतिम सल्लेखना की कामना करते-करते पुनः आराध्य के रूप गुण में लीन हो जाती हैं "हे प्रभु! तव शरीर कांति है, सुवर्ण सम अतिशय सुन्दर । चन्द्र समान धवल तव कीर्ति, व्याप्त हो रही त्रिभुवन पर ।। धर्म-सुधा बरसाने को प्रभू, पूर्ण चन्द्रमा तुम ही हो। मोह महातम से अंधे हैं, त्रिभुवन के सब प्राणीगण, ज्ञानौषधि से चक्षुखोलने, तुम्हीं चिकित्सक हो भगवन्। इस प्रकार ऐसे विश्वरोग से मुक्ति दिलाने वाले चिकित्सक का सानिध्य प्राप्त कर वे बार-बार नमनकर अपनी भक्ति प्रगट करती हैं। अंतिम पदों में उन प्रभू की शक्ति का गुणगान करती हैं जिनकी भक्ति से आधि-व्याधि उपाधि से मुक्ति मिलती है। प्रभू का भक्त कालजयी बन जाता है तीन लोक में घूम-घूमकर, निगल रहा सब प्राणीगण । क्रूर सिंह सम महाभयंकर काल शत्रु सम्मुख लखकर ॥ उसको भी तव भक्त जीतकर, मृत्युंजय बन जाते हैं, स्मरजित्! मृत्युञ्जय! नमोऽस्तु मम, मृत्यु नाश के हेतु हैं। इन वीर प्रभु की शुद्ध मन से दृढ़तापूर्वक भक्ति करने वाला, कर्मक्षय कर अमरपद प्राप्ति का अधिकारी बन जाता है। इस लघु पुस्तिका में कवयित्री ने जम्बूद्वीप स्तुति प्रस्तुत करते हुए पूरे जम्बूद्वीप की रचना और वहाँ विविध द्वीप, पर्वतों पर स्थित मंदिरों को वंदन किया है। वहाँ विराजमान तीर्थंकर प्रभू की स्तुति की है। यद्यपि पूरी स्तुति स्थल वर्णन की स्तुति है पर उसमें काव्य छटा की महत्ता है "षट् कुल पर्वत पर चैत्यालय रत्नमयी शोभे शाश्वत । उन गृह में प्रतिमाएं इक सौ आठ प्रमाण सभी में नित ॥ वे सुदर्शन गिरि, विविध दिशाओं के गजदंताचल, षोडशवक्षार गिरि, बत्तीस रजताचल पर्वत, भरत ऐरावत में स्थित दो विजया पर्वत, जंबू-शाल्मलि पर स्थित चैत्यालय, घातकि, पुष्कर द्वीप सभी पर स्थित भगवंतों को श्रद्धा से वंदन करती हैं और अंतिम भावना तो पाप विच्छेद कर मुक्ति की है, जिसे व्यक्त करना नहीं भूलती "नमोऽस्तु जिन प्रतिमा को मेरा सकल ताप विच्छेद करो। नमोऽस्तु जिन प्रतिमा को मेरा सकल दोष से शुद्ध करो।" इसी प्रकार तीसरी मंगल स्तुति है इसमें भगवान की त्रैलोक्यमयी करुणा दृष्टि का गुणगान है। उनकी वाणी "चन्द्र किरण चन्दन, गंगाजल से भी जो शीतल वाणी, जन्म मरण भय रोग निवारण, करने में हैं कुशलानी । सप्तभंग युत स्याद्वादमय गंगा जगत पवित्र करें। सबकी पाप धूलि को धोकर, जग में मंगल नित्य करें । इस स्तुति में कवयित्री अपने कर्ममल का क्षयकर आत्ममंगल की भावना तो भाती ही हैं, विश्व के प्राणीमात्र के मंगल की शुभकामना भी व्यक्त करती हैं- . "धर्म वही है तीन रत्नमय त्रिभुवन की सम्पति देवे । उसके आश्रम से सब जन को भव-भव में मंगल होवे ॥ - वे सम्पत्ति भी याचती हैं तो तीन उन रत्नों की, जो मोक्षमार्ग के संबल बनें। सांसारिक भौतिक सम्पत्ति की चाह नहीं है। सर्वकल्याण भावना साधु की सरल वृत्ति का परिचायक भाव है। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012075
Book TitleAryikaratna Gyanmati Abhivandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Jain
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1992
Total Pages822
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size26 MB
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