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________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवदन ग्रन्थ [४९१ आत्मा की खोज [परमात्मा की भक्ति] समीक्षक-डॉ० शेखर जैन, अहमदाबाद प्रस्तुत लघु काव्यकृति में पू० गणिनी माताजी ने अपने हृदय के भक्ति सुमन चौबीस तीर्थकों के चरणों में समर्पित किए हैं। साध्वी का मन तो सदैव पंचपरमेष्ठी के ही चरणों में ध्यानस्थ रहता है। आदि तीर्थंकर भगवान् ऋषभदेव से चौबीसवें तीर्थंकर भगवान् महावीर तक सभी की वंदना चौबीस स्तुतियों में प्रस्तुत की है। कवयित्री ने सभी तीर्थंकरों के पांचों कल्याणकों का वर्णन किया है। उनके गर्भ, जन्म, दीक्षा, केवलज्ञान व निर्वाण को तिथियों को प्रस्तुत कर मानो चौबीस तीर्थंकरों का इतिहास प्रस्तुत किया है। इसमें हमें तीर्थंकरों के समय आदि का ज्ञान होता है। साथ ही साथ उनके जन्मस्थल, वंश, माता-पिता, साधु-साध्वी, गणधर आदि का उल्लेख इसी ज्ञानवर्द्धन का ही साधन है। तीर्थंकरों के शरीर के रंग, उनकी दुर्धर तपस्या, उनकी उपसर्गजयिता एवं उपदेशों को प्रस्तुत कर, उनके गुणगान किए हैं। प्रत्येक तीर्थंकर हर युग का पुनरुद्धारक होता है। उसका जन्म धरती पर समता, क्षमता का पोषक होता है। युग को नयी राह प्रशस्त करता है। देखें भगवान् ऋषभदेव का रूप "ये कनक वर्ण धनुपंचशतक, तनु वे युग के अवतारी थे। आयु चौरासी लाख पूर्व, धारक वृष लक्षण धारी थे।" "षट् मास योग में लीन रहे, लंबित भुज नासा दृष्टि थी। निज आत्म सुधारस पीते थे, तन से बिल्कुल निर्ममता थी।" इसी प्रकार के रूप, गुण, प्रभाव का वर्णन प्रायः सभी तीर्थंकरों की स्तुतियों में विद्यमान है। श्री समुच्चय 'चौबीस जिनस्तुति' में एक साथ चौबीस तीर्थंकरों की स्तुति है। जिसमें एक-एक पद एक-एक तीर्थकर की गुण महिमा से मंडित है। वर्तमान शासन श्री महावीर प्रभू का है। उनकी सुखद भावना है "श्री वीर प्रभू का यह शासन, सब जग में मंगलकारी है। सब जग में उत्तम मान्य हुआ, सब ही जन को सुखकारी है। इन पच्चीस स्तुतियों में महत्त्वपूर्ण है कवयित्री की काव्य सम्पन्नता । उत्तम उपमा आदि से तीर्थंकरों के रूप-गुण का वर्णन हृदयग्राही है। वे यथास्थान प्रकृति का भी अवलोकन लेकर तीर्थकर महिमा को प्रस्तुत कर सकी हैं। भाषा की तत्सम पदावली द्वारा मनोहर चित्रण भाषा की चित्रात्मकता का प्रतीक है "जिनके वक्त्राम्बुज से निकली, दिव्यध्वनि अमृतरस झरिणी। जो चिरा कुमति हरणी मन में, चैतन्य सुधारस की भरणी ॥ उन सुमतिनाथ को वंदूं मैं, वे ज्ञान ज्योति आनंदघन हैं। निज शुद्धात्मा को ध्या-ध्याकर, कारिनाश शिवधाम रहें ॥" "तरुवर अशोक था शोक रहित, सिंहासन रत्न खचित सुन्दर । छत्रत्रय मुक्ताफल लंबित, भामंडल भवदर्शी मनहर ॥ सुर दुंदुभि बाजे बाज रहे, दुरते हैं चौंसठ श्वेत चमर । सुर पुष्प वृष्टि नभ से बरसे, दिव्यध्वनि फैले योजन भर ॥" प्रत्येक स्तुति से अनेक उद्धरण प्रस्तुत किए जा सकते हैं। कृति में अंतिम आत्मपीयूष (शुद्धात्म भावना) लंबी स्तुति या प्रार्थना बड़ी ही सुन्दर है। कविता का प्रारंभ ही रूपक से किया है "मेरा तनु निज मंदिर उसमें, मन कमलासन शोभे सुन्दर। उस पर मैं ही भगवान् स्वयं, राजित हैं चिन्मय ज्योतिप्रवर ॥ Jain Educationa international For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012075
Book TitleAryikaratna Gyanmati Abhivandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Jain
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1992
Total Pages822
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size26 MB
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