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वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला
१०३. भजन संग्रहः- जम्बूद्वीप ज्ञानज्योति प्रवर्तन के पावन प्रसंग पर इस भजन संग्रह का प्रकाशन किया गया, इसमें ज्ञानज्योति प्रवर्तन, जम्बूद्वीप,
हस्तिनापुर तीर्थ तथा ज्ञानमती माताजी पर लिखे गये विभिन्न लेखकों के गीत व भजन दिये गये हैं, जिन्हें सैकड़ों नगरों में ज्योति प्रवर्तन के
अवसर पर गाया गया। प्रथम संस्करण का प्रकाशन फरवरी १९८३ में। पृष्ठ संख्या ६४, मूल्य १.५० रु०। १०४. मातृभक्तिः- पूज्य गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी की पूजा, जीवन झांकी, भजन आदि तथा रत्नमती माताजी का गद्य-पद्यमय जीवन
परिचय दिया गया है। लेखिका एवं संकलनकी कु० माधुरी शास्त्री। प्रथम संस्करण सन् १९८० में। द्वितीय संस्करण नवम्बर १९८२ में।
पृष्ठ संख्या ४८, मूल्य १.५० रु०।। १०५. आर्यिका रत्नमती:- इस कृति में रत्नों की जन्मदात्री माता मोहिनी देवी (रत्नमती माताजी) का जीवनवृत्त विस्तारपूर्वक दिया गया है। परमविदुषी
पू० गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी जैसी कन्यारत्न को प्रथम सन्तान के रूप में जन्म देकर जिन्होंने अपने मातृत्व को धन्य कर लिया। गृहस्थाश्रम का भलीभांति परिपालन करके सन् १९७१ में ५८ वर्ष की आयु में जगत् पूज्य आर्यिका दीक्षा धारण कर १३ वर्षों तक निर्बाधरूप से व्रतों का पालन करके १५ जनवरी १९८५ के दिन अत्यंत शांत परिणामों से समाधिमरण प्राप्त किया। प्रथम संस्करण सन् १९८४ में। पृष्ठ
२५६, मूल्य ६.०० रु० । लेखक मोतीचंद जैन सर्राफ (वर्तमान क्षुल्लक मोतीसागर) १०६. बाल ब्र० मोतीचंद जैन एक परिचयः- लेखिका कु० माधुरी शास्त्री। प्रकाशन जनवरी १९८७ में। पृष्ठ संख्या २०, मूल्य निःशुल्क। १०७. सुमेरुवंदनाः- शाश्वत तीर्थधाम सुदर्शन मेरु (सुमेरु) की वंदना पूज्य ज्ञानमती माताजी तथा अन्य अनेक भक्तिकों ने लिखी है। उनका संकलन
कु० माधुरी शास्त्री ने किया है। ग्रंथमाला द्वारा प्रकाशित सभी पुष्पों में यह सबसे छोटी साइज (जेबी साइज) की पुस्तक है। (२.८४४.५
इंच) प्रथम संस्करण शरद् पूर्णिमा सन् १९८४ में, पृष्ठ संख्या ३२, मूल्य ५० पैसे। १०८. ज्ञानरश्मिः - पूज्य गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी के उपदेशों का संकलन । संकलनकर्ती बाल ब्र० कु० माधुरी शास्त्री। प्रथम संस्करण
सन् १९८७ में। पृष्ठ संख्या ५२, । द्वितीय संस्करण अक्टूबर १९८८ में, मूल्य १.५० रु०।। १०९. चर्चा शतक:- कविवर द्यानतरायजी ने इस कृति में तीनलोक, गुणस्थान, मार्गणा, जीव समास, चार गति आदि विभिन्न विषयों पर १००
श्लोकों की रचना ढुंढारी भाषा में की है जिनसे अनेक प्रकार की जानकारी प्राप्त होती है। श्लोकों का हिन्दी अर्थ भी दिया गया है। वीरज्ञानोदय ग्रंथमाला से इसका प्रथम बार प्रकाशन हुआ है। चर्चा प्रेमियों के लिए यह अच्छा ग्रंथ है। प्रथम संस्करण फरवरी १९८९ में। पृष्ठ संख्या १४६, मूल्य ६/- रु०। पूनों का चाँदः- पूज्य गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी का संक्षिप्त जीवन परिचय । लेखिका कु० माधुरी शास्त्री। प्रथम संस्करण जन,
१९८९ में। पृष्ठ संख्या ५६, मूल्य ३/- रु०। १११. आर्यिका रत्नमती पूजन:- पूज्य ज्ञानमती माताजी की जन्मदात्री मां रत्नमतीजी की पूजन व जीवन परिचय का संग्रह इसमें है। इसकी लेखिका
कु० माधुरी शास्त्री हैं। प्रथम संस्करण जनवरी १९८९ में। पृष्ठ संख्या २०, मूल्य १/- रु० । ११२. कुन्दकुन्द के भक्तिप्रसूनः- भक्तिमार्ग सुगम है। भक्ति पाठ में तन्मयता आती है। भक्तियों का पाठ सभी वर्ग के लिए लाभप्रद है। आचार्य
कुन्दकुन्द द्विसहस्राब्दि महोत्सव के पावन प्रसंग पर उन्हीं की रचित भक्तियों का हिन्दी पद्यानुवाद सहित प्रकाशन करवाकर माताजी ने उनके
प्रति कृतज्ञता ज्ञापित की है। प्रथम संस्करण अप्रैल १९८९ में। पृष्ठ संख्या ४८, मूल्य ३/- रु०। ११३.
ज्ञानामृत:- अनेकों ग्रंथों का सार सरलता से इस ग्रंथ में दिया गया है। ग्रंथ का संपूर्ण विषय आचार्य प्रणीत शास्त्रों के आधार से लिया गया है। गूढ़ तत्त्वों को सरलता से समझने के लिए यह ग्रंथ अति उपयोगी है। नित्य स्वाध्याय के लिए अच्छा ग्रन्थ है। प्रथम संस्करण मई १९८९
में । पृष्ठ संख्या ३६८+२८, मूल्य ४४/- रु०। ११४. छन्द शतक:- रचयिता श्री वृंदावन कवि वि.सं. १८४८ में जन्मे कविवर वृंदावन ने अनेक पूजाएं व भक्तिपरक स्तुतियाँ लिखीं। कविवर ने
इस छन्द शतक में छंदों का लक्षण निरूपित करते हुए उसी में भगवान जिनेन्द्र की स्तुति भी कर दी। इसी दृष्टिकोण से पूज्य माताजी ने इसे
परीक्षा के पाठ्यक्रम में रखवाया है। प्रथम संस्करण अक्टूबर १९८९ में। मूल्य ४/- रु०। ११५. समयसार पूर्वार्द्ध:- आचार्य कुन्दकुन्द कृत समयसार पर आचार्य अमृतचन्द्र एवं आचार्य जयसेन ने संस्कृत में विस्तृत टीकाएं लिखी हैं।
वर्तमान में जयपुर के विद्वान् पं. जयचंदजी छाबड़ा ने आचार्य अमृतचन्द्रकृत टीका का ढुंढारी भाषा में अनुवाद किया। आ. अमृतचन्द्र कृत टीका का नाम "आत्मख्याति" है। इसकी कई हिन्दी टीकाएं प्रकाशित हुई हैं, किन्तु आ० जयसेन कृत तात्पर्यवृत्ति टीका की हिन्दी स्व० आचार्य श्री ज्ञानसागरजी ने की है। अब तक दोनों आचार्यों की अलग-अलग टीकाएं छपती रहीं। कुछ विद्वानों की यह धारणा बनी हुई है कि दोनों अवार्यों की टीका में मतभेद हैं किन्तु इस धारणा को दूर करने के लिए पू० माताजी ने दोनों आचार्यों की संस्कृत टीका व उन पर लिखी गई अपनी हिन्दी टीकाएं एक साथ इस कृति में प्रकाशित की हैं।
आवश्यकतानुसार स्पष्टीकरण के लिए जगह-जगह भावार्थ-विशेषार्थ भी दिये गये हैं तथा प्रत्येक अधिकार के अंत में सारांश भी दिये
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