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________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [५३१ ११७. १२१. हैं जिनके कारण यह कृति अतिविशिष्ट बन गई है। इस ग्रंथ का यह पूर्वार्द्ध प्रकाशित हुआ है। इसमें आचार्य अमृतचन्द्र के अनुसार १९२ गाथाओं की तथा आचार्य जयसेन के अनुसार २०१ गाथाओं की टीका छपी है। शेष उत्तरार्द्ध में प्रकाशित होगी। दोनों आचार्यों की टीका का हिन्दी अनुवाद एक साथ पहली बार प्रकाशित हुआ है। प्रथम संस्करण का प्रकाशन जनवरी १९९० में । पृष्ठ संख्या ६६०+४८, मूल्य ६४/- रु० । ११६. समयसार उत्तरार्द्ध:- [यह अभी अप्रकाशित है शीघ्र ही प्रकाशित होने वाला है।] भक्तामर मण्डल विधानः- आचार्य मानतुंग विरचित भक्तामर स्तोत्र जैन समाज में चिरपरिचित है। घर-घर में नित्यप्रति इसका पाठ करने की परम्परा है। इसके अनेकों हिन्दी पद्यानुवाद भी हुए हैं। वर्तमान में भक्तामर स्तोत्र के चौबीस घंटे से लगाकर सप्ताह भर या इससे भी अधिक समय तक, ४८ दिन तक अखण्ड पाठ जोरों से हो रहे हैं। भक्तामर स्तोत्र के मूल श्लोक व उसके हिन्दी पद्यानुवाद सहित ४८ अर्घ्य तथा अष्टक व जयमाला देकर इसे विधानपूजन का रूप दे दिया गया है। इसमें अष्टक व जयमाला आर्यिका श्री चंदनामतीजी द्वारा रचित हैं। प्रथम संस्करण सितंबर १९९१ में । पृष्ठ संख्या ५२, मूल्य सदुपयोग । ११८. ज्ञानमती माताजी की पूजन एवं भजन:- रचयित्री आर्यिका चन्दनामती माताजी। प्रथम संस्करण सन् १९९० में। पृष्ठ १६, मूल्य १/- रु. द्वितीय संस्करण सितंबर १९९१ में। पृष्ठ संख्या १६, मूल्य १/- रु०। ११९. अष्टमूलगुण:- मूलगुण मुनियों के भी होते हैं व श्रावक के भी। यदि मूलगुणों का पालन मुनि नहीं करें तो वे मुनि कहलाने के अधिकारी नहीं हो सकते, उसी प्रकार यदि श्रावक भी मूलगुणों का पालन नहीं करें तो वह श्रावक कहलाने का अधिकारी नहीं हो सकते। श्रावक के इन मूलगुणों का पालन प्रत्येक मनुष्य कर सकता है। उसी का दिग्दर्शन इस छोटी-सी पुस्तक में किया गया है। लेखिका-आर्यिका चंदनामतीजी हैं। प्रथम संस्करण अप्रैल १९९० में। पृष्ठ संख्या १६, मूल्य-सदुपयोग। १२०. महावीराचार्य व समीक्षात्मक अध्ययन:- दिगम्बर जैन मुनि महावीराचार्य ८वीं शताब्दि के माने जाते हैं। उन्होंने गणितसार संग्रह नाम से ग्रंथ लिखा है जिसमें गणित सम्बंधि विविध क्रियाओं को स्पष्ट किया है। इस पुस्तक के युवा लेखक डॉ० अनुपम जैन ने गणितसार संग्रह का आधुनिक गणित की दृष्टि से एक समीक्षात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया है। महावीराचार्य की यह कृति वर्तमान में विश्व मान्य है। प्रथम संस्करण अप्रैल १९८५ में। पृष्ठ संख्या ८४, मूल्य १०/- रु० (पुस्तकालय संस्करण २०/- रु०) फिलासफर मेथेमेटिशयन (अंग्रेजी में):- इसके लेखक प्रो० लक्ष्मीचंद जैन व डॉ० अनुपम जैन हैं। इसमें आ. यतिवृषभ, वीरसेन स्वामी एवं नेमीचंद्राचार्य द्वारा रचित ग्रंथों में प्रयुक्त गणित का दिग्दर्शन कराया है। प्रथम संस्करण १९८५ में। पृष्ठ संख्या ४४, मूल्य १०/- रु० । १२२. आत्मानुशासन पद्यावली:- आचार्य श्री गुणभद्रस्वामी द्वारा रचित इस आत्मानुशासन ग्रन्थ के संस्कृत श्लोकों का पूज्य आर्यिका श्री अभयमती माताजी द्वारा पद्यानुवाद किया गया है। प्रथम संस्करण सन् १९९० में, पृष्ठ संख्या १७२, मूल्य २०/- रु० । १२३. आचार्य वीरसागर स्मृति ग्रंथ:- पूज्य माताजी के दीक्षागुरु (चारित्र चक्रवर्ती आचार्य श्री शांतिसागरजी के प्रथम शिष्य) आचार्य श्री वीरसागर जी महाराज की स्मृति को चिरस्थाई बनाने के लिए माताजी की विशेष प्रेरणा से कई वर्षों के अथक प्रयास के पश्चात् इस ग्रंथ का प्रकाशन हुआ है। प्रथम संस्करण अप्रैल १९९० में | पृष्ठ संख्या ५९६+२४+चित्रावली, मूल्य १०१/- रु०। मेरी स्मृतियाँ:- संघ के सदस्यों तथा समाज के वरिष्ठ श्रेष्ठी, विद्वान् एवं कार्यकर्ताओं के विशेष आग्रह पर पूज्य माताजी ने अपने दीर्घ जीवन की आत्मकथा लिखी है। यह एक श्रमसाध्य कार्य था-भूली बिसरी स्मृतियों को याद कर उन्हें लिपिबद्ध करना और वह भी पाठकों की दृष्टि से। इसे लिखते समय माताजी के मस्तिष्क पर बहुत जोर पड़ा। इस ग्रंथ में अपने बाल्यकाल से (सन् १९४० से) सन् १९९० तक की घटनाओं को तो दर्शाया ही है। साथ ही देशकाल की परिस्थितियों पर भी दृष्टिपात किया है। यह केवल स्मृति ग्रंथ ही नहीं है, अपितु विगत ५० वर्षों का दिगंबर जैन समाज का इतिहास है। इन विगत वर्षों में हुई विशेष घटनाओं को भी अपने अनुभवों के आधार पर अंकित किया है। प्रथम संस्करण अप्रैल १९९० में। पृष्ठ संख्या ८४४+२६, मूल्य १०१/- रु० । १२५. मुनिचर्या:- मुनि-आर्यिकाओं की नित्य-नैमित्तिक क्रियाओं संबंधी अनेक ग्रंथों का प्रकाशन विभिन्न स्थानों से समय-समय पर हुआ है, किन्तु वे भक्तियाँ आदि संस्कृत-प्राकृत में हैं जिनका अर्थ बहुत कम त्यागी वर्ग समझ पाते थे। इस कमी की पूर्ति माताजी ने की। सभी भक्तियों का, दैनिक व पाक्षिक प्रतिक्रमण पाठों का हिन्दी में पद्यानुवाद कर दिया है उसी का यह प्रकाशन है। अब इन पाठों को पढ़ने वाले प्रत्येक साधू को यह सहज रूप में समझ में आ जावेगा कि वे क्या पढ़ रहे हैं। दिगंबर मुनि-आर्यिकाओं के लिए यह ग्रंथ विशेष रूप से उपयोगी है। प्रथम संस्करण का प्रकाशन अगस्त १९९१ में । पृष्ठ संख्या ६२८+६४ मूल्य ६०/- रु०। १२६. दशलक्षण धर्म पूजाः- पूजा विधान के क्षेत्र में माताजी ने अभूतपूर्व क्रांति उत्पन्न कर दी है। नित्यनियम पूजा में देवशास्त्र गुरु पूजा की जगह बहुतायत से अब माताजी द्वारा लिखी हुई नवदेवता पूजा नगर-नगर में होने लगी है। इसी श्रृंखला में पूज्य माताजी ने दशलक्षण धर्म की पूजा सरस छंदों में लिखी है। पुस्तक के अंत में आर्यिका श्री चन्दनामतीजी कृत चौबीस तीर्थकर समन्वित "ह्रीं" की पूजा दी गई है। प्रथम संस्करण अगस्त १९९० में । पृष्ठ संख्या २४ । मृल्य २/- रु०। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012075
Book TitleAryikaratna Gyanmati Abhivandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Jain
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1992
Total Pages822
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size26 MB
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