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________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [५२९ ९२. सार रूप पुस्तक का सृजन किया है। यह भी विद्यार्थियों के लिए एवं संक्षेप रुचि वालों के लिए अति उपयोगी है। प्रथम संस्करण अक्टूबर, १९८८ में। पृष्ठ संख्या १५८, मूल्य ८/- रु० । गोम्मटसार कर्मकाण्डसारः- आचार्य नेमीचंद्र सिद्धांत चक्रवर्ती विरचित गोम्मटसार कर्मकांड नामक ग्रंथ में नौ अध्यायों में ९७२ गाथाएं प्राकृत में हैं। यह ग्रंथ भी उपर्युक्त की तरह सरलता से समझ में आ जावे इसे दृष्टि में रखकर पूज्य माताजी ने पूरे ग्रंथ से १३३ गाथाओं को सार रूप छांटकर लघुकाय बना दिया है। परीक्षार्थियों के लिए विशेष उपयोगी है। प्रथम संस्करण अक्टूबर १९८९ में, पृष्ठ संख्या ११२, मूल्य ७/- रु०। ९०. सम्मेदशिखर टोंक पूजन:- पूज्य माताजी ने महान् सिद्धक्षेत्र सम्मेदशिखर की भक्ति से ओत-प्रोत होकर वहाँ की प्रत्येक टोंक के अर्घ्य चढ़ाने के लिए सुन्दर पद्य बनाए हैं। अधों के पश्चात् बख्तावर कवि रचित प्रचलित पार्श्वनाथ पूजा एवं शांति विसर्जन पाठ दिया गया है। प्रथम संस्करण १९८८ में। पृष्ठ संख्या ६८, मूल्य १/- रु०। सर्वतोभद्र विधान:- इस विधान की रचना सर्वप्रथम पूज्य माताजी ने की। इसमें तीन लोक के समस्त अकृत्रिम जिनचैत्यालयों की १०१ पूजाएं हैं। अर्घ्य २००० हैं। प्रथम संस्करण सितम्बर, १९८८ में, द्वितीय संस्करण मई १९९२ में, पृष्ठ संख्या ८३६+३४, मूल्य ६४/- रु०। तीनलोक विधान:- (मध्यम तीनलोक विधान) इसमें तीनलोक संबंधी ६४ पूजाएं हैं। अर्घ्य ८८४ एवं पूर्णार्घ्य १४० हैं। प्रथम संस्करण सितंबर १९८८ में। पृष्ठ ३०८, मूल्य १५/- रु० । द्वितीय संस्करण अप्रैल सन् १९९२ में। पृष्ठ संख्या ५२०+२८, मूल्य ४०/- रु० । ९३. त्रैलोक्य विधान- (लघु तीनलोक विधान):- इस विधान में भी तीनलोक की समस्त अकृत्रिम जिनप्रतिमाओं की पूजा हैं। इसमें ५६७ अर्ध्य व ७४ पूणार्घ्य हैं। यह लघु तीनलोक विधान है। प्रथम संस्करण सन् १९८८ में। पृष्ठ ३०८, मूल्य १५/- रु०। जैन महाभारत:- विश्व विख्यात कौरव-पांडवों की जीवन कथा जैन पांडव पुराण में विस्तार से दी गई है उसी को संक्षिप्त सरल एवं सुबोध शैली में इस उपन्यास में दिया है। प्रथम संस्करण दिसंबर १९८९ में। पृष्ठ संख्या ८०, मूल्य ४/- रु०। पंचमेरु विधानः- अढ़ाई द्वीप में सुदर्शन आदि पांच मेरु अवस्थित हैं। प्रत्येक मेरु के चार-चार वन में १६-१६ अकृत्रिम चैत्यालय हैं। इस प्रकार ८० चैत्यालयों में विराजमान अकृत्रिम जिनप्रतिमाओं की इसमें पूजा की गई है। आज इन पंचमेरुओं के साक्षात् दर्शन को शक्ति नहीं है। अतः इनकी भक्तिभाव से पूजा करके साक्षात् दर्शनों का पुण्य लाभ प्राप्त किया जा सकता है, इन्हीं भावों से माताजी ने इस विधान की रचना की है। प्रथम संस्करण १९८८ में, पृष्ठ संख्या ६४, मूल्य ४/- रु० । जम्बूद्वीप पूजांजलि:- दिगंबर जैन समाज में पूजा एवं नित्यपाठ विषयक गुटके व जिनवाणी संग्रह प्राचीन समय से हस्तलिखित व छपे हुए प्रकाशित होते रहे हैं। फिर भी भक्तों का वर्षों से आग्रह था कि माताजी की लिखी हुई पूजाओं का संग्रह जम्बूद्वीप संस्थान से प्रकाशित किया जावे। तदनुसार जम्बूद्वीप पूजांजलि नाम से प्राचीन एवं नवीन पूजाओं, स्तुति एवं स्तोत्रों का मिला-जुला प्रकाशन प्रथम संस्करण नवम्बर १९८८ में प्रकाशित हुआ। पृष्ठ संख्या ५२४+१६, मूल्य २५/- रु०। ९७. भावत्रिभंगी:- आचार्य श्रुतमुनि विरचित इस कृति में क्षायिक आदि ५ भावों में मार्गणाओं व गुणस्थानों को घटित किया है। इसमें ११६ गाथाएं हैं। पूज्य माताजी ने इसका अनुवाद करके सैद्धांतिक चर्चा प्रेमियों के लिए इसे सुगम बना दिया है। प्रथम संस्करण नवम्बर १९८८ में। पृष्ठ संख्या ८०+१६, मूल्य ५/- रु०। अष्टसहस्री द्वितीय भागः- पूर्ण अष्टसहस्री की टीका तो सन् १९७० में ही माताजी ने लिखकर तैयार कर ली थी, किन्तु इस दूसरे भाग के प्रकाशन में अप्रत्याशित विलम्ब हो गया। सबसे बड़ी कठिनाई प्रूफरीडिंग की भी थी। अंततोगत्वा पूज्य माताजी से ही यह श्रम लेना पड़ा। इस द्वितीय भाग में कारिका ७ से २३ तक की टीका है। प्रथम संस्करण मार्च १९८९ में, पृष्ठ संख्या ४२४+६४, मूल्य ६४/- रु०। कुन्दकुन्द मणिमाला:- आचार्य कुन्दकुन्द कृत समयसार आदि ९ ग्रंथों में से भक्तिपरक एवं निश्चय व्यवहार समन्वयपरक १०८ गाथाओं को लेकर उनका अर्थ एवं विशेषार्थ दिया गया है। पुस्तक के अंत में श्लोकों का हिन्दी का पद्यानुवाद भी दिया गया है। प्रथम संस्करण का प्रकाशन जनवरी १९९० में किया गया । पृष्ठ संख्या १५०+१६, मूल्य ५/- रु०। अष्टसहस्त्री तृतीय भागः- इसमें कारिका २४ से ११४ की टीका हुई है। तीनों भागों में पूज्य माताजी ने जगह-जगह विशेषार्थ व भावार्थ ता दिये ही हैं, सारांशों के दे देने से परीक्षा देने वाले विद्यार्थियों को अतीव सुगमता हो गई है। प्रथम संस्करण मार्च १९९० में। पृष्ठ संख्या ६०८+७६, मूल्य १००/- रु०। जम्बूद्वीप परिशीलन:- जम्बूद्वीप के विषय में अन्य परम्पराओं में क्या मान्यता है, पृथ्वी मंडल के विषय में वैज्ञानिकों की मान्यता आदि के विषय में सुन्दर संकलन है। लेखक-डॉ० अनुपम जैन, प्रथम संस्करण मई १९८२ में । पृष्ठ संख्या ६२, मूल्य ३.०० रु०। १०२. समयसार कलश पद्यावली:- आर्यिका श्री अभयमती माताजी द्वारा समयसार के कलशकाव्यों की पद्यावली है। प्रथम संस्करण-सन् १९८२ में। पृष्ठ संख्या १८५, मूल्य ५.०० रु०। १००. १०१ Jain Educationa international For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012075
Book TitleAryikaratna Gyanmati Abhivandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Jain
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1992
Total Pages822
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size26 MB
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