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________________ ४८०] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला समाधितन्त्र एवं इष्टोपदेश समीक्षक-डॉ० रूद्रदेव त्रिपाठी, आचार्य, निदेशक ब्रजमोहन बिरला, शोध केन्द्र, उज्जैन । TERRORIES समाधितंत्र SOWOWOWOWOWOWO सत्य एवं सफल पद्यानुवाद जैनाचार्य श्री पूज्यपाद द्वारा विरचित "समाधितन्त्र" और "इष्टोपदेश" नामक दोनों लघुग्रन्थ जैन-सम्प्रदाय के अनुयायियों की आध्यात्मिक चेतना को वास्तविक मार्ग दिखाने के लिये अत्युत्तम ग्रन्थ माने जाते हैं। संस्कृत-भाषा WOWOWOWONI के अनुष्टुप् छन्द में विरचित ये ग्रन्थ क्रमशः १०४ पद्य एवं ५१ पद्यों में अपने वक्तव्य अंशों को संक्षेप में प्रस्तुत करते हैं। दिगम्बर जैन साधकवर्गों के ये कण्ठहार हैं। इनके रचयिता ईसा की पाँचवीं शती में श्रमण-परम्परा के दिग्गज आचार्य हुए हैं। आपने जैन-सिद्धान्त, व्याकरण, वैद्यक तथा अध्यात्म-दर्शन के अनेक अप्रतिम ग्रन्थों का निर्माण किया था। आपकी (पद्यानुवाद सहित "जैनेन्द्र-प्रक्रिया-व्याकरण" तथा "सर्वार्थसिद्धि" आदि कृतियां जैन आगम की प्राण हैं। इन उपर्युक्त दोनों कृतियों के मौलिक तत्त्वों से सर्वसाधारण जनों को सुपरिचित कराने तथा इनके द्वारा दिये जाने वाले उपदेशों को आत्मसात् कराने के लिये-परमविदुषी पूज्य गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी ने संस्कृत पद्यों का हिन्दी में पद्यानुवाद करके एक महान् लोकोपकारी कार्य किया है। यह अनुवाद पद्यात्मक होने पर भी अत्यन्त सुबोध एवं अतिसरल भाषा में रचित है। संस्कृत-पद्यों की भाषा दार्शनिक विषयों के गूढ़ रहस्यों को संकलित करने की दृष्टि से कहीं-कहीं जटिल भी है, किन्तु पद्यानुवाद हिन्दी भाषा के ३० मात्रा वाले मात्रिक छन्द में प्रत्येक पद्य के भावार्थ को विशदरूप से समझाने में पर्याप्त सफल हुए हैं। लोक बोध्य भाषा के प्रयोग की सधी हुई भाषा में माताजी ने प्रत्येक पद्य के आन्तरिक रहस्यों को तथा व्यंग्य रूप में ग्राह्य भाषा के प्रयोग से अध्यात्म तथा रत्नत्रय के रहस्यों को समझाने की दृष्टि इतनी सरल सुगम बना दी गई है कि रहस्यपूर्ण शास्त्रीय ग्रन्थियाँ स्वयं खुल गई हैं। जो वाक्यावली दार्शनिक शब्दों से ग्रथित होकर समस्त पदों के कारण जटिल बनी हुई थीं, उन्हें अत्यन्त सरल रूप में प्रस्तुत करने का प्रयास अनुवादिका के स्वात्मबोध से सम्बद्ध है। उदाहरणार्थ यह पद्य देखिये नरदेहस्थमात्मानमविद्वान् मन्यते नरम्। तिर्यंचं तिर्यगङ्गस्थं सुरांगस्थं. सुरं तथा ।। अर्थात्जिस गति में जीवन चला जावे, उसको ही अपनी मान रहे। नरतन में स्थित आत्मा को, मूढ़ात्मा जन नर मान रहे ॥ तिर्यक् शरीर में स्थित को, मूढ़ात्मा तिर्यग् मान रहे। जो सुर के तन में राजित है, उस आत्मा को ही देव कहे ॥ जहाँ संस्कृत-पद्य की उक्ति में जो अध्याहार की अपेक्षा बनी हुई थी, उसकी पूर्ति एवं गद्यगत गूढार्थ की स्पष्टता भी हिन्दी पद्यानुवाद में की गई है। इसी प्रकार आत्मा एवं गुरु के महत्त्व की प्रस्तुति में कहा गया है। कि नयत्यात्मानमात्मैव जन्म निर्वाणमेव च। गुरुरात्मात्मनस्तस्मानान्योऽस्ति परमार्थतः ।।७५ ।। इसी का हिन्दी छंद देखें आत्मा ही आत्मा को सचमुच, बहु जन्म प्राप्त करवाता है। यह आत्मा ही सचमुच निज को, निर्वाण स्वयं ले जाता है । इसलिये स्वयं यह आत्मा ही, आत्मा का गुरू कहाता है। परमार्थरूप से देखें तो, नहिं अन्य गुरू बन पाता है। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012075
Book TitleAryikaratna Gyanmati Abhivandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Jain
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1992
Total Pages822
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size26 MB
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