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वीर ज्ञानोदय ग्रंथमाला
त्रिलोक शोध संस्थान ने यहाँ सारस्वत अनुष्ठान और नव निर्माण का जो सिलसिला चलाया है, उसके परिणामस्वरूप यहाँ आज अनेक जैन मंदिर, तीर्थंकरों
की भव्य प्रतिमाएं और धर्मशालाएं आदि निर्मित हो चुकी है। किन्तु इन सभी निर्माण कार्यों में हस्तिनापुर का मुख्य आकर्षण है चौरासी फुट ऊँचे सुमेरु पर्वत से आवृत्त एक भव्य जम्बूद्वीप का स्थापत्य । आर्यिका ज्ञानमती जी ने जैन शास्त्रानुसारी जम्बूद्वीप का जो मॉडल यहाँ स्थापित करवाया है, उसमें छह कुलाचल, चार गजदंत, सोलह वक्षार, चौंतीस विजयार्ध, जम्बू-शाल्मलि वृक्ष, गंगा-सिन्धु आदि नब्बे नदियां और तीन सौ के लगभग तोरणद्वार सहज में ही यह अहसास करवा देते हैं कि अतात में भारतीय संस्कृति का फलक कितना विशाल और व्यापक था।
सन् १९८२ में प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने इस मॉडल का 'जम्बूद्वीप ज्ञान ज्योति' के रूप में भारतभ्रमण के लिए प्रवर्तन किया था तो उन्होंने कहा, "जम्बूद्वीप का वर्णन हमारे सभी शास्त्रों में है, जैसे बौद्ध, जैन और वैदिक धर्म में जो-जो वर्णन है, वह केवल भारतवर्ष का ही नहीं है, बल्कि उससे बहुत बड़ा है। पूज्य ज्ञानमती माताजी ने जो यह मॉडल बनवाया है तथा जो हस्तिनापुर में इसको बनाया जा रहा है, इससे लोग इस जम्बूद्वीप के बारे में ज्यादा से ज्यादा ठीक जानकारी प्राप्त कर सकेंगे और जहाँ-जहाँ यह रास्ते में जाएगी, वहाँ भी इसके द्वारा एक नई धार्मिक भावना जगेगी।"
दरअसल, जम्बूद्वीप-निर्माण से हस्तिनापुर अपने सुदूर अतीत की अस्मिता से जुड़ा है। प्राकृतिक प्रकोपों के कारण जब-जब यह उजाड़ बना है, तब-तब समकालीन इतिहास नए सनिवेश से इसे बसाता आया है। पुरातत्त्व वेत्ता श्री बी.बी. लाल कहते हैं कि हस्तिनापुर पंचम की बस्ती पंद्रहवीं शती में विनष्ट हो चुकी थी किन्तु आर्यिका जी द्वारा स्थापित जम्बूद्वीप साक्षी है कि बीसवीं सदी के उत्तरार्ध में हस्तिनापुर षष्ठ का नव-निर्माण जारी है।
दानतीर्थ हस्तिनापुर
-क्षुल्लक मोतीसागर
भगवान आदिनाथ का प्रथम आहार____ हस्तिनापुर तीर्थ तीर्थों का राजा है। यह धर्म प्रचार का आद्य केन्द्र रहा है। यहीं से धर्म की परम्परा का शुभारम्भ हुआ। यह वह महातीर्थ है, जहाँ से दान की प्रेरणा संसार ने प्राप्त की।
भगवान् आदिनाथ ने जब दीक्षा धारण की, उस समय उनके देखा-देखी चार हजार राजाओं ने भी दीक्षा धारण की। भगवान् ने केशलोंच किये, उन सबने भी केशलोंच किए, भगवान् ने वस्त्रों का त्याग किया, उसी प्रकार से उन सब राजाओं ने भी नग्न दिगम्बर अवस्था धारण कर ली। भगवान् हाथ लटकाकर ध्यान मुद्रा में खड़े हो गये, वे सभी राजागण भी उसी प्रकार से ध्यान करने लगे, किन्तु तीन दिन के बाद उन सभी को भूख-प्यास की बाधा सताने लगी। वे बार-बार भगवान् की तरफ देखते, किन्तु भगवान् तो मौन धारण करके नासाग्र दृष्टि किए हुए अचल खड़े थे, एक-दो दिन के लिए नहीं, पूरे छह माह के लिए। अतः उन राजाओं ने बेचैन होकर जंगल के फल खाना एवं झरनों का पानी पीना प्रारंभ कर दिया।
उसी समय वन देवता ने प्रकट होकर उन्हें रेका कि “मुनि वेश में इस प्रकार से अनर्गल प्रवृत्ति मत करो।" यदि भूख-प्यास का कष्ट सहन नहीं हो पाता है तो इस जगत् पूज्य मुनि पद को छोड़ दो, तब सभी राजाओं ने मुनि पद को छोड़कर अन्य वेश धारण कर लिए। किसी ने जटा बढ़ा ली, किसी ने बल्कल धारण कर लिए, किसी ने भस्म लपेट ली, कोई कुटी बनाकर रहने लगे इत्यादि।
भगवान् ऋषभदेव का छह माह के पश्चात् ध्यान विसर्जित हुआ। वैसे तो भगवान् का बिना आहार किये भी काम चल सकता था, किन्तु भविष्य में भी मुनि बनते रहें, मोक्षमार्ग चलता रहे, इसके लिए आहार हेतु निकले। किन्तु उनको कहीं पर भी विधिपूर्वक एवं शुद्ध प्रासुक आहार नहीं मिल पा रहा था, उनसे पूर्व में भोग भूमि की व्यवस्था थी। लोगों को जीवन यापन की सामग्री-भोजन, मकान, वस्त्र, आभूषण आदि सब कल्पवृक्षों से प्राप्त हो जाते थे। जब भोगभूमि की व्यवस्था समाप्त हुई, तब कर्मभूमि में कर्म करके जीवनोपयोगी सामग्री प्राप्त करने की कला भगवान् के पिता नाभिराय ने एवं स्वयं भगवान् ऋषभदेव ने सिखाई।
असि. मसि, कृषि, सेवा, शिल्प एवं वाणिज्य करके जीवन जीने का मार्ग बतलाया । सब कुछ बतलाया किन्तु दिगम्बर मुनियों को किस विधि से आहार दिया जावे, इस विधि को नहीं बतलाया। जिस इन्द्र ने भगवान् ऋषभदेव के गर्भ में आने से छह माह पहले से रत्नवृष्टि प्रारंभ कर दी थी, पाँचों कल्याणकों में स्वयं इन्द्र प्रतिक्षण उपस्थित रहता था, किन्तु जब भगवान् प्रासुक आहार प्राप्त करने के लिए भ्रमण कर रहे थे, तब वह भी नहीं आ पाया।
सम्पूर्ण प्रदेशों में भ्रमण करने के पश्चात् हस्तिनापुर आगमन से पूर्व रात्रि के पिछले प्रहर में यहाँ के राजा श्रेयांस को सात स्वप्न दिखाई दिये, जिसमें प्रथम स्वप्न में सुदर्शन मेरु पर्वत दिखाई दिया। प्रातःकाल में उन्होंने ज्योतिषी को बुलाकर उन स्वप्रों का फल पूछा । तब बताया कि जिनका मेरु पर्वत पर अभिषेक हुआ है, जो सुमेरु के समान महान् हैं, ऐसे तीर्थंकर भगवान के दर्शनों का लाभ प्राप्त होगा। ___कुछ ही देर बाद भगवान् ऋषभदेव का हस्तिनापुर नगरी में मंगल पदार्पण हुआ। भगवान् का दर्शन करते ही राजा श्रेयांस को जाति स्मरण हो गया। उन्हें आठ भव पूर्व का स्मरण हो आया। जब भगवान् ऋषभदेव राजा वज्रजंघ की अवस्था में व स्वयं राजा श्रेयांस वज्रजंघ की पत्नी रानी श्रीमती
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