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________________ ४८६] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला कथाप्रसंग में जहाँ कहीं लेखिका को अवसर मिला है उसने जीवन की दार्शनिक व्याख्या करने वाले संस्कृत श्लोकों को उद्धृत किया है "संयुक्तानां वियोगश्च भविता ही नियोगतः । किमन्यै रंगतोऽप्यंगी, निःसंगो हि निवर्त्तते ॥" त्यज्यते रज्यमानेन, राज्येनान्येन वा जनः मज्यते त्याज्यमानेन, तत्त्यागोस्तु विवेकिनाम्" (पृ० १४, १५) परीक्षाः- दया, ममता, सहनशीलता और क्षमा की साकार प्रतिमा, पतिव्रता सीता की पावन जीवन-गाथा पर आधारित यह उपन्यास वह आलोक स्तम्भ है, जिसके प्रकाश में भारतीय नारी-समाज युग-युगों तक अपना जीवन पथ आलोकित करता रहेगा। उपन्यास की कथावस्तु सीता के स्वयंवर से प्रारम्भ होकर, उनकी अग्नि परीक्षा एवं अन्त में जिनदीक्षा लेने तक के दीर्घ घटनाक्रमों को अपने में समेटे है। इस कथावस्तु का मूल आधार जैन ग्रन्थ पद्म पुराण है। जैन रामायण को रोचक शैली में प्रस्तुत करने के इस सफल प्रयास के लिए विदुषी लेखिका बधाई की पात्र हैं। सीता की अग्नि परीक्षा का प्रसंग अत्यधिक मर्मस्पर्शी है। अग्नि परीक्षा की संकट की घड़ी में भी सीता अपना धैर्य नहीं खोती। वह प्रसन्नचित्त हो एकाग्रता से श्री जिनेन्द्र देव की स्तुति कर अपने प्राणपति श्री रामचन्द्रजी को नमस्कार करके कहती हैं “हे अग्निदेवते! राम के सिवाय यदि स्वप्न में भी मैंने किसी अन्य पुरुष को मन से भी चाहा हो तो तू मुझे भस्मसात् कर दे अन्यथा तू शीतल हो जा।" इतना कहकर सीता अग्नि कुण्ड में कूद जाती हैं। सती का सतीत्व रंग लाता है। उसके सतीत्व के प्रभाव से अग्नि की लपलपाती लपटों के स्थान पर जल की उत्ताल तरंगें नर्तन करने लगती हैं, कमल मुस्कराते हैं, देवियाँ चमर ढोरती हैं, देवतागण दुन्दुभि बाजे बजाते हुए पुष्पवर्षा करते हैं। आकाश से भूतल तक समस्त दिग्मण्डल सती के जय-जयकार से प्रतिध्वनित हो उठता है। मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम सीता से क्षमा याचना कर क्रोध का परित्याग कर, राजमहल में चलने का आग्रह कहते हैं। इस अवसर पर सीता के मुख से उच्चारित शब्द भारतीय नारी को महानता के उस शिखर पर प्रतिष्ठापित करते हैं, जिसकी ऊँचाई अकल्पनीय है। "हे नाथ! मैं किसी पर भी कुपित नहीं हूँ। इसमें न तुम्हारा ही कुछ दोष था न देश के अन्य लोगों का । यह तो मेरे पूर्व संचित कर्मों का ही विपाक था, जो मैंने भोगा है। हे बलदेव, मैंने तुम्हारे प्रसाद से देवों के समान अनुपम भोग भोगे हैं, इसलिए अब उनकी इच्छा नहीं है। अब तो मैं वही कार्य करूँगी कि जिससे पुनः मुझे स्त्री पर्याय प्राप्त न हो। अब मैं समस्त दुःखों का क्षय करने के लिए जैनेश्वरी दीक्षा धारण करूंगी। (पृ० १३६) सीता का यह संवाद जैनदर्शन के कर्मफल सिद्धांत का सुंदर उदाहरण है। __ योगचक्रेश्वर बाहबली:- कर्नाटक प्रदेश के श्रवणबेलगोल स्थान में स्थित योग चक्रेश्वरी बाहुबली की ५७ फीट ऊँची मनोज्ञ पावन प्रतिमा के समक्ष लेखिका की निरन्तर एक वर्ष की ध्यान साधना का प्रतिफल, यह उपन्यास युगपुरुष भगवान वृषभदेव के पुत्र प्रथम कामदेव भगवान बाहुबली की जीवन कथा है। इस पुस्तक में आगम, सिद्धान्त एवं पुराण एक साथ समाविष्ट हैं। लेखिका ने बाहुबली के केवलज्ञान के सम्बन्ध में प्रचलित शल्य का खण्डन आदिपुराण के निम्न श्लोक के आधार पर किया है "संक्लिष्टो भरताधीशः सोडस्मन्त इति यत्किल। हृद्यस्य हार्द तेनासीत् तत्पूजाऽपेक्षि केवलम्॥ (आदिपुराण ३६, १,८६) अर्थात् वे भरतेश्वर मेरे से संक्लेश को प्राप्त हुए हैं-मेरे निमित्त से इन्हें दुःख पहुँचा है यह विचार बाहुबली के हृदय में आ जाया करता था जो कि भरत के प्रति सौहार्द रूप था। इसलिए केवलज्ञान होने में भरत की पूजा की अपेक्षा रही थी। लेखिका का विषय प्रतिपादन का ढंग तार्किक है। देखिए "मैं भरत की भूमि में खड़ा हूँ" बाहुबली के मन में यह शल्य थी इसलिए उन्हें केवलज्ञान नहीं हुआ था। ऐसी जो किम्वदन्ती है वह भगवजिनसेनाचार्य के आदिपुराण ग्रन्थ से मेल नहीं खाती है। क्योंकि इस प्रकार की शल्य होने पर उन्हें मनःपर्ययज्ञान और अनेक प्रकार की ऋद्धियाँ नहीं हो सकती थीं। उनके ध्यान को धर्मध्यान संज्ञा नहीं दी जा सकती थी और उनके ध्यान के प्रभाव का ऐसा चमत्कार भी नहीं हो सकता था जैसा कि आदिपुराण में वर्णित है। अतः बाहुबली के शल्य मानना असंगत है। __ (पृष्ठ ६३) ___ बाहुबली की श्रवणबेलगोल स्थित प्रतिमा चन्द्रगुप्त वस्ती तथा गुल्लिका अज्जी के मनोरम चित्रों के संकलन से विवेच्य पुस्तक का आकर्षण द्विगुणित हो गया है। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012075
Book TitleAryikaratna Gyanmati Abhivandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Jain
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1992
Total Pages822
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size26 MB
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