SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 551
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [४८७ कामदेव बाहुबली:- इस लघुकाय पुस्तिका में इस युग के प्रथम मोक्षगामी सिद्ध पुरुष बाहुबली के समग्र जीवनवृत्त पर प्रकाश डाला गया है। भगवान ऋषभदेव ने १००० वर्ष तपस्या करके केवलज्ञान प्राप्त किया और बुहत समय पश्चात् उन्हें मोक्ष की प्राप्ति हुई किन्तु बाहुबली ने मात्र एक वर्ष की कठोर तपस्या से ही केवलज्ञान की प्राप्ति की और अपने पिता प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव से पूर्व मोक्षगामी हुये। बाहुबली की जीवन वृत्त के साथ ही पुस्तक के अन्त में श्रवणबेलगोल में स्थित गोम्मटेश्वर मूर्ति स्थापना एवं प्रथम अभिषेक की कथा के समावेश ने इस पुस्तक की उपादेयता में चार चाँद लगा दिये हैं। मूर्ति के विभिन्न अंगों का माप भी पुस्तक में दिया गया है। वसन्ततिलका छंद में संस्कृत भाषा में लिखा गया श्री बाहुबली अष्टक एवं उसका हिन्दी अनुवाद और श्री नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती रचित श्री गोम्मटेश स्तुति विवेच्य पुस्तक के विशिष्ट आकर्षण हैं। . आदिब्रह्मा:- औपन्यासिक शैली में लिखी गई १६४ पृष्ठों की इस पुस्तक में भोगभूमि की परम्परा के लुप्त हो जाने पर, कर्मभूमि की प्रतिष्ठा करने वाले ऋषभदेव के महानचरित्र को आदि ब्रह्मा के रूप में चित्रित कियागया है। कृतयुग के आदि में जन्म लेने के कारण ऋषभदेव को आदि ब्रह्मा कहा जाता है। ऋषभदेव ने जहां एक ओर अपनी प्रजा को असि, मसि, कृषिविद्या, वाणिज्य और शिल्प इन छः क्रियाओं द्वारा आजीविका उपार्जन के उपाय बताये, वहाँ दूसरी ओर अपनी पुत्री ब्राह्मी एवं सुन्दरी को अक्षर लिपि एवं अंक विद्या सिखाकर नारी शिक्षा के महान कार्य का भी सूत्रपात किया। आज भी प्रचलित ब्राह्मी लिपि का नामकरण ऋषभदेव की पुत्री ब्राहमी के नाम पर ही हुआ है। ऋषभदेव ने कर्म से निर्धारित वर्ण व्यवस्था को भी प्रारम्भ किया। विवेच्य पुस्तक अत्यधिक ज्ञानवर्द्धक है। समवशरण एवं सम्पूर्ण जम्बूद्वीप की रचना का विस्तृत एवं स्पष्ट वर्णन वैज्ञानिक ढंग से इस पुस्तक में किया गया है। पुस्तक के अन्त में लेखिका स्वयं ऋषभदेव को आदि ब्रह्मा की संज्ञा से विभूषित किये जाने के कारणों पर प्रकाश डालती हुई लिखती है। "इस युग के आदि में जन्म लेकर प्रभु ने प्रजा को असि, मसि, कृषि, शिल्प, विद्या और वाणिज्य इन छः प्रकार की आजीविका का कृषि, शिल्प, विद्या और वाणिज्य इन छ: प्रकार की आजीविका का उपाय बताया। पुनः श्रावकों की देव पूजा, गुरुपास्ति, स्वाध्याय, संयम, तप और ज्ञान इन छ: क्रियाओं का तथा सामायिक, स्तवन, वन्दना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और कायोत्सर्ग इन छ: प्रकार की मुनियों की क्रियाओं का उपदेश देकर मोक्षमार्ग का विधान किया था। इसलिये वे प्रभु ऋषभदेव "आदिब्रह्मा" युगसृष्टा, विधि और ब्रह्मा आदि नामों से पुकारे गये हैं। (पृ० १६४) आटे का मुर्गाः- हिंसा की विभीषिका से त्रस्त मानव जाति के लिये अहिंसा और जीव दया का उपदेश देने वाली यह पुस्तक लेखिका की मर्मस्पर्शी कृति है। पुस्तक का कथानक पुराणों में वर्णित महाराज यशोधर के जीवन से सम्बन्धित है। यशोधर राजा ने अपनी माता चन्द्रवती के आग्रह पर आटे के मुर्गे की बलि चढ़ायी थी, जिसके परिणामस्वरूप माता चन्द्रवती एवं यशोधर दोनों ने तिर्यंच योनियों के असंख्य दुःखों को भोगा और स्वयं अपनी सन्तान के द्वारा बलि में अर्पित कर दिये गये। महाराज यशोधर के माध्यम से बलि प्रथा के विरोध में मानो आर्यिकाजी की अपनी वाणी ही मुखरित हो उठी है यह बलि प्रथा महा निकृष्ट है। मांसाहारी पापियों द्वारा कल्पित है। 'देवी पशुबलि से तुष्ट होती है' ऐसी बात मिथ्या है। उनके लिए फल नैवेद्य चढ़ाना चाहिए। बलि में भी जीववध दुर्गति को ले जायेगा ऐसा दयामयी अर्हन्त देव के शासन में कहा गया है"। (पृ. १५) यह कथा वृत्तान्त "वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति" के सिद्धांत पर करारी चोट है। हिंसा के परिणाम स्वरूप होने वाली दुर्गतियों का वीभत्स चित्रण और अहिंसा के सुखद परिणामों का दिग्दर्शन कराना ही इस पौराणिक उपन्यास का प्रमुख उद्देश्य है। हिंसा और अहिंसा के तुलनात्मक विवेचन में लेखिका अतिशय भावुक हो उठी हैं "अहो! हिंसा पाप से होने वाली दुर्गतियाँ कहाँ! जहाँ कि दुःख ही दुःख है और अहिंसा धर्म से होने वाली उत्तम गतियाँ कहाँ जहाँ कि सुख ही सुख है।" । . सती अंजना:- जैन धर्म के कर्म सिद्धान्त की विभिन्नता को बतलाने वाली यह मर्मस्पर्शी औपन्यासिक कृति सती अंजना का जीवन चरित्र है। अपने पूर्व जन्म में जिनेन्द्र भगवान् की प्रतिमा को किंचित् समय के लिए बावड़ी में डाल देने के पाप के फलस्वरूप अंजना को २२ वर्षों तक अपने पति के वियोग को सहना पड़ा। अंजना का यह जीवन वृत्तान्त “जो जस करिय तो तस फल चाखा" के सिद्धान्त का रोमांचकारी उदाहरण है। अंजना के ही शब्दों में "प्रत्येक मनुष्य को अपने पूर्व संचित कर्म का फल तो भोगना ही पड़ता है।" भारतीय सती नारियों में अंजना का नाम बड़े गौरव से लिया जाता है। पुस्तक में अंजना पुत्र हनुमान की वीरता का भी विस्तृत वर्णन है। हनुमान के जीवन-चरित्र का आधार पद्मपुराण है। वैदिक रामायण में हनुमान को पवन सुत मानकर उनकी वानर रूप में पूजा की गई है, किन्तु जैन रामायण के अनुसार हनुमान पवनंजय के पुत्र वानर वंशी थे, न कि स्वयं वानर रूप । वे तो कामदेव के समान सुन्दर रूप वाले थे। जैन रामायण पर आधारित अंजना के इस रोमांचक कथानक को पुराणों से निकालकर औपन्यासिक रूप में प्रस्तुत कर लेखिका ने आधुनिक नारी-समाज पर महान् उपकार किया है। अंजना की क्षमा और सहनशीलता आधुनिक नारियों के लिए अनुकरणीय है। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012075
Book TitleAryikaratna Gyanmati Abhivandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Jain
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1992
Total Pages822
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy